मृदु_सघोष
दबी जुबां में होंठ डबडबा रहे देखो कैसे,
किसकी किताब की वो…मुखबंद हो गई;
बड़े बोल बोले…झूठ ठग लेवे मन…चले,
ठुमकती इतराती…ऐसी दौलतमंद हो गई;
फेर में पाप पुण्य के…चलती रही वो चाल,
सोचा अपनी किस्मत शायद बुलंद हो गई;
अरे तीर ऐसा चूका हाथ निकला वो मौका,
खुद अपनी ही ज़िन्दगी…नज़रबंद हो गई;
उड़े तितली सा मन…फड़फड़ाती घूमें कहाँ,
मुई कंटीली नागफनी…यारों गुलकंद हो गई;
अटक गया ऐसा……भूल हर फन अब तक,
जो भूख दबी रही वो कैसी स्वछन्द हो गई;
प्यार की आड़…क्रमबद्ध लिखा था धोखा
कैसे वो मस्ताने की पहली पसंद हो गई;
दिल बैरागी ठहरा…मन अनुरागी चोखा,
बने बड़ी हस्ती…..खुद में मलंद हो गई;
छोर छुपता कैसे अलग अलग थे दोनों,
दो गांठो में बंधी मानो…तहबंद हो गई;
जुगनी करे तकरार हर बात में हो इंकार,
भीड़ देख अनजानी की भक्ति अंध हो गई;
नकारती थी हर बात न करती थी मुलाकात,
फिर भी घूम घूम कैसी दिलपसंद हो गई;
गले भी लगायी खूब सैर भी कराई खूब,
लगी सुगंध से भरी पर अजीब दुर्गन्ध हो गई;
इबारतें लिख डाले औ’कटाक्ष व्यंग जड़े ताले,
भूमिका विहीन ज़िन्दगी….कोरा निबंध हो गई;
अब कहें औ’ सुने क्या ये जग बड़ा बैरी हुआ,
जो देर करती थी वो…वक़्त की पाबंद हो गई
शून्य खोज में बड़ी तल्लीन हुई ज़िन्दगी,
शुरू होने से पहले…ही फिल्म बंद हो गई;
भरोसे बैठी ओट में…आँख बंद कर लेटी,
नींद गहराई ऐसी..जगी इच्छा मंद हो गई;
उठे मन में मृदु सघोष अनीशा करे उदघोष,
कविता को लिखे आप संग आनंद में हो गई,
दिल को भावे शब्द…ना होना आप निशब्द,
हौसला पाकर कलम…अहसानमंद हो गई;
©anitasharma