मूल्यांकन
पसंद चयन और वरीयता तीन ऐसे शब्द है जो एक दूसरे से संबद्ध है प्राय हमें जो पसंद होता है उसे चयन करना अपना ध्येय मानते हैं पर जीवन में उसका क्रम समय के साथ साथ भिन्न होता जाता है और वो वरीयता से परे होता जाता है मसलन जब किसी से प्रथम साक्षात्कार होता है श्रव्य या दृश्य रूप
में तो दो बातें होती है या तो उसे सामान्य मान आगे बढ़ जाते हैं किंतु दूसरों से यदि वो कुछ इतर हो तो उसे पुनः देखने सुनने की उत्सुक्ता बनने लगती है यहां वरीयता का ग्राफ क्रम एकदम से ऊपर चला आता है पर आधुनिक जीवन में पसंद नापसंद नित्य बदलती रहती है क्योंकि सही ग़लत का चयन करना एक दुरगम काज है व्यक्ति दिखाई कुछ देता है और होता है किसी अन्य प्रवृति का
पर इन सबसे परे एक ऐसी चीज़ है जिसका मुल्यांकन हर दृष्टि में समान होता है चूंकि उसके लिए मेहनत कर्म लगन उत्साह आदि संलग्न होते है वो है यश या कीर्ति जो दूर दूर तक व्यक्ति विशेष के अच्छे कर्मों के पश्चात अर्जित होती है
व्यक्ति अमर होता है हर तरफ उसका गुणगान होता है उसको देखना मिलना या सुनना सबकी प्रथम वरीयता होती है।सभ्य समाज में शिष्ट लोग हैं जहां
किसी की भी महत्ता उसके गुणों से होती है पर असभ्य समाज के अशिष्ट लोग
हर दो दिन में नया आवरण ओढ़ लेते हैं उनकी पसंद व चयन नित्य बदलता है
और वरीयता की तो बात ही ना की जाए।सत्कर्म का चयन ही पसंद और वरीयता का क्रम निर्धारित करता है जो अच्छा है वो सबको दिखता है जो
व्यक्ति विशेष की पसंद है वो निजी हो सकती है पर सर्वसमाज की पसंद हो जाए यह कतही संभव नहीं किंतु ये तीन शब्द सहज नहीं जो सरलता से हमें स्वयं को आकृष्ट करे
मनोज शर्मा