‘मूक हुआ आँगन’
अनुबंधों के बागानों में, रिश्ते रूखे रहते हैं।
अपने ही पुश्तैनी घर में, अपने भूखे रहते हैं।।
परिवर्तन की इस आँधी में, बोझ बने हैं घर सारे।
मूक हुआ रंगीला आँगन , लोग हुए अंदर सारे ।।
गमलों में तुलसी के पौधे, रूखे-सूखे रहते हैं ।
अपने ही पुश्तैनी घर में, अपने भूखे रहते हैं।।
हिस्से और बसीयत के हैं, घर-घर में चर्चे कितने।
धीरे-धीरे कहते हैं वो, बूढ़ों के खर्चे कितने?
जीवन के अंतिम वर्षों में ,अवयव दूखे रहते हैं।।
अपने ही पुश्तैनी घर में, अपने भूखे रहते हैं।।
सूख गई नदियों की धारें, प्रेम सरोवर बंजर हैं।
मीठी-मीठी बातें करते, पीछे रखते खंजर हैं।।
कर्तव्यों की बलिवेदी पर, सपने रूठे रहते हैं।
अपने ही पुश्तैनी घर में, अपने भूखे रहते हैं।।
जगदीश शर्मा सहज