मुसाफिर…….
मुसाफिर…….
बचपन में माँ का आंचल मिला
फिर माँ की गोद में सर रखकर बड़ा हुआ
फिर माँ ने कंधे पर एक थैला लटका दिया
उस थैले में जिंदगी नाम की पुस्तकों को रख दिया।
अब जिंदगी ने मुझको भी
एक मुसाफिर बना दिया……
पुस्तकों को पढ़ा मने अनमने ढंग से
कभी इधर कभी उधर
पुस्तकों का बोझ कंधे पर लाद लिया
बढे जिंदगी की राह पर
जिंदगी को हमसफर बना लिया।
अब जिंदगी ने मुझको भी
एक हमसफर बना दिया ।
हसीन रास्ते जिंदगी में मिले तो बहुत
ना कभी किसी से रश्क हुआ
सीधी साधी भोली भाली सी इस जिंदगी में
अपनों के अपनेपन के एहसास ने
हमको दबा दिया।
जिंदगी ने मुझको भी हमसफर….
हरमिंदर कौर
यूपी, अमरोहा
स्वरचित रचना