*मुर्गा की बलि*
हमारा देश आस्था और धार्मिक रीति-रिवाज का देश माना जाता है। लोग इस देश में इतने आस्थावान हैं, कि पत्थर जिस पर लिखा होता है फलां गांँव,शहर या कस्बा इतनी दूर है, उसे भी हाथ जोड़कर प्रणाम कर करते हैं और उसके आगे माथा टेकते हैं। इसी प्रकार देश के विभिन्न भागों में अलग-अलग प्रकार की प्रथाएंँ और रीति रिवाज पाए जाते हैं। देश के कुछ भागों में लोग अपने इष्ट देव को प्रसन्न करने के लिए मनुष्य और पशु पक्षियों की बलि चढ़कर उन्हें मार देते हैं। उनका मानना होता है, कि ऐसा करने से उनके इष्ट देव प्रसन्न हो जाते हैं और उन्हें मनचाहा वरदान प्रदान करते हैं। ऐसी प्रथाएंँ जिनका कोई औचित्य नहीं है, हमारे देश में विभिन्न भागों में होती रहती हैं।
अब से लगभग 20-22 साल पुरानी बात है। हमारा एक खेत हमारे गांँव के दक्षिण में लगभग 3 किलोमीटर दूर है। उस खेत पर जाते हुए, जैसे ही गांँव को पार करते हैं, एक चौराहा पड़ता है। कभी-कभी गांँव वालों का कहना होता है, कि इस चौराहे पर ही गांँव के कुछ लोग टोने-टोटके करते रहते हैं।
रात के लगभग 9-10 बजे होंगे, हमारे ही गांँव के दो व्यक्ति जो भक्ताई सीख रहे थे, जिनमें एक का नाम कालीचरन था और दूसरे का सुरेश था। इस चौराहे पर लगभग 9-10 बजे, ये दोनों नव भगत चौराहे वाली देवी के लिए एक जीवित मुर्गा, शराब, पान अगरबत्ती, लाल कपड़ा कुछ प्याले इत्यादि लेकर पहुंँच गए और उस चौराहे पर बैठकर शराब प्यालो में करके और पान इत्यादि को फैलाकर बैठ ही थे, कि सौभाग्य से उस दिन मेरे पिताजी भी उसी खेत से जो गांँव से दक्षिण में तीन किमी की दूरी पर था, वापस लौट रहे थे। जैसे ही वह उनके कुछ करीब पहुंँचे तो उन्होंने देखा चौराहे पर उजाला हो रहा था और कोई व्यक्ति मंत्रों का जाप कर रहा था। और उनके पास प्याले, शराब की बोतल अगरबत्ती और एक सफेद रंग का मुर्गा था जो उन्होंने अपनी गोद में पकड़कर बैठा रखा था। उस समय रास्ते में झुंड बहुत हुआ करते थे। इन झंडों को काटकर ही लोग अपने घर पर छप्पर बनाकर डालते थे। इन झुंडों से काटे जाने वाली, जिसे गांँव में पतेल बोलते थे, उसी से छप्पर बनाया जाता था और सरकंडो से छप्पर के बत्ता बनाए जाते थे। मेरे पिताजी ने थोड़ी दूर से उन दोनों का यह करामात देखा तो वह तुरन्त समझ गए कि यहांँ कोई भक्त है, जो मुर्गे की बलि चढ़ाएगा। यह देखने के लिए कि यह मुर्गे को किधर फेंकेंगे, अनुमान लगाकर एक झुंड की बगल में छुपकर बैठ गए और उन दोनों का करिश्मा देखने लगे। वह मंत्रों का लगातार जाप करते रहे, फिर उन्होंने चौराहे वाले देवी को भोग लगाया और दारु (शराब) खुद पी गए और पान भी खुद खा गए। जब उन्हें नशा हो गया तो उनमें से एक ने मुर्गे की गर्दन और मुर्गे को पकड़ा और दूसरे ने नुकीला चुरा निकाला और तुरंत मुर्गे की गर्दन काट कर उसी दिशा में, जिस दिशा में मेरे पिताजी झुंड की आड़ में खड़े हुए थे यह कहते हुए फेंका,-“लै ले जा इस अपने परसाद को, यहां क्या लैने आये रई है।”यह कहते हुए इन दोनों ने जैसे ही मुर्गा फेंका तो वह पिताजी के पास ही जाकर गिरा। पिताजी ने तुरन्त मौके का लाभ उठाया और मुर्गे को उठाकर कुछ दूरी पर जाकर उस मुर्गे के पंखों को उखाड़ने(साफ सफाई करने) लगे। उन दोनों को इस बात का कुछ पता नहीं था, कि यहां कोई छुपकर हमारा कार्यक्रम भी देख रहा है।
अब दोनों नवोदित भगत मुर्गे को खोजने लगते हैं, लेकिन मुर्गा वहां हो तो मिले। काफी देर तक उन्होंने मुर्गे को यह कहते हुए ढूंढा कि,-” यार फेंका तो यही था, आखिर गया कहांँ?, आज तो सचमुच चौराहे वाली वाली ले गई दिखै है।”फिर वे दोनों काफी देर बाद खोजते-खोजते और यह कहते हुए,-” कहीं कोई जंगली जानवर तो नहीं ले गया है।” पिताजी के पास आए और पिताजी को देखकर वह घबरा गए। जब पिताजी ने उन्हें डरावने और मजाकिया अंदाज में डांँटा। पिताजी की आवाज पहचान कर वे दोनों कहने लगे,-” यार हम तो सचमुच डर गए थे, कि मुर्गे को आज चौराहे वाली ले गई।”
फिर क्या था वे तीनों मुर्गे को लेकर वापस घर आ गए और उस मुर्गे को दोनों भगत जी ने पकाया और उन दोनों के साथ हमारे पिताजी ने भी, वह मुर्गा खाया। आज भी वह दोनों जब कभी पिताजी को मिलते हैं, तो हंँसते हैं, कि यार वह बात सदा याद रहेगी।
आज भी हमारे समाज में ऐसी बहुत सी घटनाएंँ और रीति रिवाज अपनाये जाते हैं, जिनसे हमें कोई लाभ नहीं होता शिवा नुकसान के। इसलिए ऐसे कामों से सदैव दूर रहिए और लोगों को समझाइए कि इससे कोई लाभ होने वाला नहीं है। ऐसे बेकार कार्य से बचने के लिए एकमात्र उपाय हम सबको शिक्षित होना बहुत जरूरी है। अतः पढ़िए, आगे बढ़िए और ऐसे कामों से हमेशा दूर रहिए।