मुझे लगा कि तुम्हारे लिए मैं विशेष हूं ,
मुझे लगा कि तुम्हारे लिए मैं विशेष हूं ,
मगर मैं सिर्फ भीड़ का हिस्सा रही ,
तुमने नजरंदाज किया मेरी उपस्थिति को ,
और मेरी मृग तृष्णा मौन होकर ,
तुम्हें दूर खड़े ताकती रही ।
कुछ निढाल से अश्रु लुढ़कर
गिर पड़े फड़फड़ाते अधरों पर ,
और वह कसैला स्वाद ,
काश ! एक बार तुमने भी चखा होता ।
शायद किसी वसन की तह के मध्य ,
तुमने दबा दी है मेरी स्मृति ,
और मैं गिर पड़ी हूं किसी पाती की तरह,
तुम्हारे कदमों के तले ,
इस प्रतीक्षा में कि उठाकर तुम मुझे चूमों
और लगा लो अपने हृदय से ।
मेरे प्रेम की पराकाष्ठा उस कल्पना में ,
वहां आकर समाप्त हो जाती है,
जहां तुम्हारी भुजाओं के बीच मेरी धरातल सी देह ,
सिर्फ कुछ शब्दों में सिमटकर रह जाती है ।
मंजू सागर
गाजियाबाद