मुझे प्रेम और पूजा में कुछ अंतर नहीं दिखाई पड़ता।
मुझे प्रेम और पूजा में कुछ अंतर नहीं दिखाई पड़ता।
रोज सुबह लाली में तेरे मुखड़े की आभा पाता हूँ।
आंख खोलते ही मैं तुमको याद करूँ औ’ मुस्काता हूँ।
भाव आचमन करके तेरा दुनियां की दूकान खोलता।
इसके पहले मुझको कुछ भी दिखता नहीं सुझाई पड़ता।
मुझे प्रेम और पूजा ——————————।
मन ही मन में फिरती रहती माला तेरे नाम रत्न की।
इसके लिए जरूरत पड़ती साथी मेरे नहीं यत्न की।
और नहीं कुछ चाह उभरती आराधक बन सब पाया है।
देह अगर कुछ कहती भी है मुझको नहीं सुनाई पड़ता।
मुझे प्रेम और पूजा ——————————।
साधन कुछ भी नहीं चाहिए नहीं समय का बंधन कोई।
मन में सतत उभरता चलता शांत शुभ्र इक चिंतन कोई।
रंग तरंगों से लिपटा मैं सुरभि सरित में डूबा रहता।
प्रेममंत्र से गुंजित मन को कि चहुँ दिश प्रेम दिखाई पड़ता
मुझे प्रेम और पूजा ——————————-।
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