मुजरिम करार जब कोई क़ातिल…
जो दिल की बारगाह में दाख़िल नहीं हुआ,
उस पर फ़िदा किसी भी तरह दिल नहीं हुआ।।
किरदार कटघरे में रहा मेरा क्यूँकि मैं,
दुनिया की भीड़ – भाड़ में शामिल नहीं हुआ।।
मक़्तूल फिर से क़त्ल हुआ फ़ैसले के वक़्त,
मुजरिम करार जब कोई क़ातिल नहीं हुआ।।
जब-जब रहा ग़मों का समन्दर उफान पर,
लहरों के फिर नसीब में साहिल नहीं हुआ।।
क़ायम रहा हूँ क़ौल पे अपने सदा ही मैं,
इसका मुझे है नाज़ कि बातिल नहीं हुआ।।
कीमत लगा रहा था वो सिक्के उछाल कर,
रुतबा मगर अमीर का हासिल नहीं हुआ।।
अब हैसियत की बात करूँ ‘ अश्क ‘ भी तो क्या?
सैलाब कोई तेरे मुक़ाबिल नहीं हुआ।।
© अश्क चिरैयाकोटी