मुक्तामणि छंद [सम मात्रिक].
मुक्तामणि छंद [सम मात्रिक].
विधान – 25 मात्रा, 13,12 पर यति,
विषम चरण में यति 12
चरणान्त में वाचिक भार 22 या गागा l
कुल चार चरण, क्रमागत दो-दो चरण तुकांत l
सरसता- दोहे के सम चरणों के पदांत को २१ की जगह २२ करने से एक मात्रा बढ़कर यह छंद सहज बन जाता है ,|
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अपना हित ही देखना , नहीं बुरीं हैं बातें |
पर ऐसा मत कीजिए ,चलें किसी पर लातें ||
शोर मचाने से नहीं , कभी बरसता पानी |
रटत- रटत हरि नाम भी , तोता बना न ज्ञानी ||
एक अनीति कर गई , रावण की बदनामी |
करते जो ताजिंदगी , क्या समझेगें कामी |
ज़ख्म कुरेदे जग सदा , देकर चोट निशानी |
आरोपों को थोपता , करता है नादानी ||
छाया के सँग फल मिलें, और दाम भी मिलते |
पर पत्थर मत मारिए , आम पेड़ जब लगते ||
हम समझे हालात को , हल करने की ठानी |
हाथ जलाकर आ गए , कड़वा पाया पानी ||
मिलती रहती हैं यहाँ , मतलब की सब यारी |
अजमाकर भी देख लो, दिल में चुभे कटारी ||
देखो इस संसार में , तरह-तरह के रोगी |
सबके अपने योग हैं , दाँव पेंच उपयोगी ||
ज्ञानी अब सब है यहाँ , कौन करे नादानी |
नहीं मुफ़्त में बाँटिए , अपना अनुभव पानी ||
माल बाँटिए मुफ़्त में , कमी निकालें खोजी |
कचरा जाओ बेचनें , चल जाती है रोजी ||
मुक्तामणि मुक्तक 13-12
,
संकट से हो सामना , एक परीक्षा जानो |
अनुभव मिलता है नया , कथ्य सत्य यह मानो |
साहस सँग पुरुषार्थ से , संकट सब टल जाते –
अपने अंदर झांककर, अपना बल. पहचानो |
एक धनुष की टूट से , मान भँग कई मानो |
रावण ,राजा,वीर सब, विश्वमित्र ऋषि जानो |
रचा स्वयंवर मानिए ,परम बम्ह की माया ~
मनुज रूप में ईश की , लीला को पहचानो |
देख रहे कविगण जगत,अपना लिखा पढ़ाते |
दूजों का जब सामने , इधर-उधर हो जाते |
पोस्ट पटकते थोपते , दौड़ लगाते भाई ~
मिलती है जब टिप्पणी , तब ही बापिस आते |
शत प्रतिशत टीकाकरण ,बात सभी यह मानो |
कोरोना से जंग का , एक भाग यह जानो |
धन्यबाद सरकार का , अपने दिल से कीजे ~
लहर तीसरी दूर हो , समय आ़ज पहचानो |
जो कोरोना से मरे , वह कहते महामारी |
बीमारी बतला रहे , बचने बाले भारी |
अब तक जो बचते रहे ,वह ही भाषण देते –
मास्क बांध घर में रहो , नौटंकी सरकारी |
प्रलयकाल तूफान सा , कोरोना है आया |
त्राहमाम है विश्व में , सबको यहाँ रुलाया |
साहस के अब तेज से, सूरज नया उगाओं ~
गहन निराशा दूर हो , हटे अँधेरी छाया |
कोरोना की मार का , कष्ट निकट था आया |
बहुत मिली सद्भावना , सम्बल सबसे पाया ||
साहस को खोया नहीं , नाम नहीं प्रभु भूला ~
जिसके कारण अब हुई , आज निरोगी काया |
हाल सभी यह देखते , साथी लगे बिछड़ने |
आसपास के खास भी, रिश्ते लगे सिकुड़ने |
फिर भी इस संसार में , रहना हमको यारो ~
हिम्मत की बुनियाद से, अवसर सभी पकड़ने |
रोद्र रूप धारण करे , हम दुश्मन के बास्ते |
पैर तले हम फूल है , हर सैनिक के बास्ते |
जज़्बात नहीं पूँछना , सुभा देश के लिए ~
गर्दन अपनी कटा दे , मां भारती के बास्ते |
एक गिलहरी राम जी , अपलक निहारते है |
बालू डाले सेतु में , तब ही पुकारते है |
योगदान को देखकर, भाव समझ उपकारी –
उसे चढ़ाकर हाथ पर , जीवन सुधारते है |
काज राम का कर रही , एक गिलहरी भोली |
रेत देह की सेतु में , करती रहती घोली |
पास बुलाया राम ने , बोले तू उपकारी –
योग तुम्हारा भी लिखा , प्रभु की निकली बोली |
(कुछ मुस्कराने के लिए )
सौंठ पुदीना लोंग सँग , अजबाइन भी डाली |
नींबू रस की बूँद से , नाक भरी है खाली |
अंतिम बचा उपाय है , यह भी मैं अजमाता-
फ्राई करना नाक है , तड़का देकर आली ||
यहाँ धरा के साथ में , अम्बर निहारता हूँ |
हालात देखकर सभी , रब को पुकारता हूँ |
दिख रही कयामत में , साहस की डोरी से –
तन्हाई आराधना , से खुद सँवारता हूँ |
वहाँ मकानों पर दिखे , जो जले उजाले है |
दीनों के मुख से छिने , वह लगे निबाले है |
दिखती चेहरे पर चमक, जितनी भी तुम मानो-
उतने ही अंदर सुनो , वह दिल के काले है |
कवि कुल की है भूमिका , ऐसी कविता बोले |
साहस का संचार रहे , जन-जन का मन डोले |
जहाँ निरासा देख लें , बिखराए मुस्कानें ~
बीमारी भी दूर हो , नेह सभी पर खोले |
देते है बलि प्राण की , मेरे वीर सिपाही |
रखें सुरक्षित सीमाएं, दिखे तिरंगा शाही |
जहाँ देश में हो युवा, जज़्बे से बलिदानी-
वहाँ राष्ट्र को जानिए ,है विकास का राही
बली उसी को मानिए , क्षमा हृदय में धारे |
पर सेवा उपकार में , जीवन सदा गुजारे |
महाबली हनुमान है , जीवन उनका देखो ~
सबके संकट टालते , जो भी उन्हें पुकारे |
झाडू देकर हाथ में , पत्नी करे इशारा |
घर बैठे कुछ कीजिए , बनता फर्ज तुम्हारा |
इस कोरोना काल ने, दिन भी क्या दिखलाया~
पोंछा बाला बन गया ,घर में पति बेचारा |😊🙏
मै आटा को गूँथता , जब भी पके रसोई |
पत्नी रोटी सेंकती , मैं भी बेलूँ लोई |
हम पत्नी के साथ में , काम न समझें ओछा ~
पोंछा तक भी मारकर ,कमी न रखता कोई |😊🙏
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विषय – राखी
राखी का त्यौहार है , रिश्तों की नव लोरी |
रेशम धागे प्रीति की , पक्की करते डोरी ||
राखी जिसने बांधकर , बहिना को पहचाना |
बहिना ने शुभकामना , मन से गाया गाना ||
भाई बहिन न भिन्न है , राखी कहती मानो |
एक सूत्र के छोर है , बंधन इनका जानो ||
पावन राखी जानिए , रिश्तों की मजबूती |
भ्रात बहिन की डोर यह , आसमान को छूती ||
सजी कलाई कह रही , अनुपम भाव सुहाना |
भैया का मंगल सदा , प्रभुवर आप निभाना ||
जुड़ा बहिन से भ्रात है ,कहते राखी धागे |
सब मंगल भी साथ है , समझो इसके आगे ||
रक्षाबंधन निकट हो , यदि कारण वश दूरी |
दोनो करते याद . है , रहती है मजबूरी ||
राखी धागा नेह का , इसकी शान निराली |
करता गान सुभाष है , पावन यह उजयाली ||
©सुभाष सिंघई
एम•ए• हिंदी साहित्य , दर्शन शास्त्र
जतारा (टीकमगढ)म०प्र०
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मुक्तामणि कुंडल
हिंदी में अनेक छंद हैं , और गेयता के आधार पर नए छंद भी सृजित हो जाते हैं , कुछ विद्वान जितना पढ़े हैं , उससे आगे कुछ स्वीकार ही नहीं करते हैं, प्रलाप विवाद के अखाड़े में ताल ठोकने लगते हैं , खैर इस विषय को यहाँ छोड़ते हैं
यहाँ हम चर्चा कर रहे है , मुक्तामणि छंद से आधारित मुक्तामणि कुंडल की | कुंडल कान में पहनने बाला एक गोल आकृति का आभूषण है , यह आकृति जहाँ से प्रारंभ होती है , वहीं पर आकर समाप्त होती है
मुक्तामणि कुंडल की शैली , कुंडलिया , कुंडलिनी से ली गई है
विधान मुक्तामणि छंद का व शैली कुंडलिया कुंडलिनी से है
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मुक्तामणि छंद –
गान धवलता से नहीं , होता है उजयाला |
बदबू कचरा ढ़ेर हो , क्या कर देगा ताला ||
(इस छंद में अधोलिखित सृजन से मुक्तामणि कुंडल बन जाएगा )
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क्या कर देगा ताला , चाहते पूर्ण सफलता |
दूर हटाना गंदगी , पाएं गान धवलता ||
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{इसी तरह नीचे लिखा सृजन मुक्तामणि छंद एव मुक्तामणि कुंडल समझिए ) मुक्तामणि कुंडल में छंद का चौथा चरण ही पांचवा , (१२ मात्रा) रहेगा व आगे छटवाँ १३ मात्रा का हो जाएगा , पर सातवाँ , आठवां अपने विधान १३-१२-पर रहेगा |तथा जिस चौकल शब्द से प्रारंभ किया था , उसी चौकल शब्द से समापन होगा | यह कुंडल चौकल से ही प्रारंभ करना होगा क्योकि इसमें चरणांत २२ मात्रिक होता है
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अपना गाकर गान जो, अपनी बाजू ठोके |
उनको तोता मानिए , कौन उसे क्यो रोके ||
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कौन उसे क्यो रोके, पालकर झूठा सपना |
विषधर बनते दर्प के, घात करें खुद अपना ||
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रखता जीवन में सही , जो भी नेक इरादा |
उनका भी ईश्वर सदा , पूरा करता वादा ||
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पूरा करता वादा , सत्य सुभाष. अब कहता |
मिली सफलता जानिए, जो जीवन शुचि रखता ||
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भोले ऊपर से दिखे , चालाकी हो अंदर |
क्या कर बैठे कब कहाँ , समझो उनको बंदर ||
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समझों उनको बंदर , डाल से चीं चीं बोलें |
अपना ही हित साधता, बनता जग में भोले ||
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कागा कपटी बोलता , हमें मोर ही जानो |
काँव – काँव करता रहे , कहे गीत ही मानो ||
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कहे गीत ही मानो , लहराकर एक धागा ||
कहता रस्सी जानिए , धोखा देता कागा ||
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माली देखो बाग का , नेह सभी से रखता |
फूलों की माला बने , उपवन पूरा हँसता ||
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उपवन पूरा हँसता , देखिए बजती ताली |
बंदन होता बाग का , हर्षित रहता माली ||
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मुख में भरकर गालियाँ, जो भी नभ में थूके |
खुद के मुख पर लोटता , कर्म यहाँ पर चूके ||
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कर्म यहाँ पर चूके, लगाकर आगी सुख में |
अमृत को तज आदमी,रखता विष को मुख में ||
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©सुभाष सिंघई
एम•ए• हिंदी साहित्य , दर्शन शास्त्र
जतारा (टीकमगढ)म०प्र०
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