“मुक्तक”
बैठ कर नीर की धारा किनारे कुछ विचारूं मैं
सुनूं समझूं मगर फिर भी तुम्हे ही क्यों पुकारूं मैं
मेरे अस्तित्व के वाहक बने हो तुम प्रिये जब से
निगाहें लाख ओझिल हों तुम्हे फिर भी निहारूं मैं
बुने थे स्वप्न बचपन में कभी अठखेलियां करते
शून्य में बैठकर उनको किताबों में उतारूं मैं
बैठ कर नीर की —————-