मुक्तक
दिनांक – 04-12-18
मंगलवार
मुक्तक
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1 रात – दिन (मात्राभार – 30)
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याद है वो भी जमाना रहते थे संग हम रात – दिन।
चैन पलभर को ना आता था मिले एक – दूजे बिन।
आज तो मुद्दतें गुजर गई हैं शक्ल तक देखे हुये-
जीन्दगी बस कट ही रही है किसी तरह तारे गिन – गिन।
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2 अपना – पराया (मत्राभार – 34)
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वैसे तो इस कायनात में सभी अपने हैं यही बतलाया।
सोच कर समझा अंधेरे में ना साथ दे खुद का ही साया।
क्या कहें ऊपर वाले की अजब- गजब निराली माया विचित्र-
जरुरतों ने ही तो है बस समझाया कौन है अपना – पराया।
#स्वरचित_मौलिक_सर्वाधिकार_सुरक्षित*
अजय कुमार पारीक’अकिंचन’
जयपुर (राजस्थान)
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