मुक्तक
ज़माने का कैसा चलन है निराला,
वही काटते सिर जिन्हें हमने पाला,
निगेहवान समझे थे जिसको वतन का,
अब वतन को हमारे वही बेच डाला,
ज़माने का कैसा चलन है निराला,
वही काटते सिर जिन्हें हमने पाला,
निगेहवान समझे थे जिसको वतन का,
अब वतन को हमारे वही बेच डाला,