मुक्तक
छलकता जाम नयनों से पिलाने चाँदनी आई।
समा आगोश में चंदा सितारे माँग भर लाई।
मचलता झूमता मौसम खिलाता रूप यौवन का-
लुटा कर जिस्म की खुश्बू सुहानी रात मुस्काई।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
छुपाए दर्द सीने में दिखाऊँ कब कहाँ कैसे?
चढ़ी जज़्बात की सीढ़ी झुकाऊँ आसमाँ कैसे?
फ़रेबी ने किया सौदा मुहब्बत का यहाँ यारों-
ढहाए ज़ुल्म उल्फ़त में बनाऊँ बागवाँ कैसे?
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
हुस्न तेरा इश्क में इक जाम बन छलता रहा।
ज़ख़्म खाए नेह दिल में आग बन जलता रहा।
ज़िंदगी तेरी सलामत क्या मुझे अब चाहिए-
ग़म छिपाया उर में अपने अश्क बन ढलता रहा।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
बस गए उर में हमारे आजमा कर देखिए।
रूठ जाएँ हम अगर तो खुद मना कर देखिए
नफ़रतों के दौर में इक मजहबी कश्ती बढ़ी-
प्रीत की धारा बहा फिर मुस्कुरा कर देखिए।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
लिए चमचे बगल में चार जो ख़िदमत कराते हैं।
करें बदनाम दूजी आन निज शौहरत बढ़ाते हैं।
बने नादान ज़ालिम हैं नहीं कुछ भान है इनको-
किए जो कर्म जीवन में वही नसीहत दिलाते हैं।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
चले वो साथ गैरों के जता रुस्वाइयाँ मेरी।
लगाकर याद सीने से हँसी तन्हाइयाँ मेरी।
चुकाती प्यार किश्तों में भुला खुद को ज़माने में-
निभातीं साथ अपना बन यहाँ परछाइयाँ मेरी।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
ज़िंदगी में आपकी जब से इनायत हो गई।
गैर सब लगने लगे उल्फ़त की आदत हो गई।
उठ रही खुशबू इबादत की सनम अब इश्क से-
हाथ देकर हाथ में तेरी अमानत हो गई।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
मुहब्बत आजमाती है कभी रुस्वा नहीं करना।
इबादत मानकर इसको कभी तन्हा नहीं करना।
वफ़ा की आरजू की है हमें धड़कन बना लेना-
बसाकर याद में अपनी कभी चर्चा नहीं करना।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
ज़िंदगी से वक्त की कीमत चुरा ले जाऊँगा।
गुलशनों से फूल की खुशबू उड़ा ले जाऊँगा।
है अगर बाजू में दम तो आजमा कर देखलो-
बेख़बर मैं ख़ौफ़ से कश्ती बचा ले जाऊँगा।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
डरो नहींं तुम नागफनी के, देख कटीले शूल।
घाव करे मन में ऐंठे ये, मिल जाएँगे धूल।
टिका नहीं है रावण का भी, इस जग में अभिमान।
भागीरथ बन कर्म करो तुम, त्याग-तपस्या मूल।।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
जगा जज़्बा इरादों में कभी झुकने न पाओ तुम।
लिए फ़ौलाद का सीना कभी रुकने न पाओ तुम।
सजा सिरताज भारत का तुम्हें सम्मान बनना है-
चमकते चाँद- सूरज बन कभी छुपने न पाओ तुम।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
मज़हबी मतभेद रखकर नफ़रतें दिल में जगाईं।
दुश्मनी की ओढ़ चादर खून की नदियाँ बहाईं।
भूल बैठे जो मनुज इंसानियत हैवान बनकर-
लाक्ष के घर में बसे वो खुद जले बस्ती जलाईं।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
खुशी से झूमते-गाते लुटाते प्यार का सागर।
उड़े रंगीनी गुब्बारे सजाने आसमाँ का दर।
नहीं हिंदू नहीं मुस्लिम भुला मतभेद मज़हब के-
चला उन्मुक्त रिश्तों से परिंदा बन हमारा घर।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’