मुक्तक
मुक्तक
पिलाता रोज़ है साकी नज़र का नाम होता है।
नहीं मजहब शराबी जात का बस जाम होता है।
निगाहें फेर कर जब भी दिखाई बेरुखी उसने
भुलाता दर्द ज़ख्मों का दवा का नाम होता है।
डॉ. रजनी अग्रवाल”वाग्देवी रत्ना”
संपादिका-साहित्य धरोहर
महमूरगंज, वाराणसी।(मो.-9839664017)