मुक्तक
(1)
ख़्वाब बुनता हूँ फिर उनको तोड़ जाता हूँ,
ख़ुद को मैं तो हक़ीक़त से जोड़ जाता हूँ,
कुछ ख़्वाब जीवन को बोझिल कर देते,
ऐसे ख़्वाबों से तो मैं मुख मोड़ जाता हूँ।
(2)
साथ चाहा था मैंने उनका उम्र भर के लिए,
बढ़ेगा क़दम साथ-साथ हर सफ़र के लिए,
कुछ क़दम साथ चल के ही मुख मोड़ लिए,
छोड़ा मुझको भटकने को दरबदर के लिए।
(3)
पाँव थक जायें तो हौसले से क़दमताल करो,
ठण्ड होती हुई रक्त में फिर कुछ उबाल करो,
वो जो सवालिया नज़रों से हैं देखते तुमको,
पा मंज़िल उनकी नज़रों में तुम धमाल करो।
(4)
कभी तो कड़ी धूप में हो पसीने से लथपथ,
कभी तो बारिश की ही बूँदों से हो तर-बतर,
कभी हाड़ कँपाती ठंडी में उँगलियाँ कसकर,
वो पैरों से तो चलाता रहता पैडल ही निरंतर,
कोई भी हालात हो वो तो रिक्शा खींचता है,
इस तरह वो अपनी गृहस्थी को सींचता है।