मुक्तक(मंच)
1
ज़रा सा देने मुझे मान तुम चले आओ
करो ये आखिरी अहसान तुम चले आओ
धड़कना ही नहीं चाहे ये दिल तुम्हारे बिन
चली न जाये कहीं जान तुम चले आओ
2
गगन के चाँद सितारों में ही रही डूबी
मैं जागती हुई सपनों में ही रही डूबी
कोई तो कहता है दीवाना कोई तो पागल
यूँ रात दिन तेरी यादों में ही रही डूबी
3
लो हमने नाम तेरे अपनी ज़िन्दगी कर दी
तेरी खुशी को ही बस अपनी भी खुशी कर दी
खुदा की करते इबादत हैं हम यहां जैसे
उसी तरह से मुहब्बत भी बन्दगी कर दी
4
रखी है ओढ़नी सिर पर बुजुर्गों ने दुआओं की।
हमें छू भी सकें आकर, न हिम्मत है बलाओं की।
हमारी ज़िन्दगी में ये खड़े रहते हैं बरगद से,
न चिंता मेघ की हमको न ही तपती हवाओं की।।
5
दुआओं का दीप है जलाती, दुखों के तम से बचाती है माँ
नज़र का टीका लगा लगा कर, बुरी बलायें भगाती है माँ
सृजन करे सृष्टि का जगत में नहीं कोई भी है माँ केजैसा
बिना बताये ही बात दिल की हमारी सब जान जाती है माँ
डॉ अर्चना गुप्ता
मुरादाबाद