मुक्तक
हमने शब्दों को फेंका था तो कपास के रेशों में
लपेटकर
पर पता नहीं वह मार्ग में कब पाषाण बन गए
और लक्ष्य तो साधा मात्र तुम्हारे कर्णो पर।
किन्तु पता नहीं वह क्यों हृदय पर घात कर गए।
अनगढ़ तो ना था मैं इतना निशानेबाज कदाचित्
मगर पुष्प जो गुंजन थे वह अंगार बन गए।
संभालता कब तक संबंधों की डोर को जीह्वा के तार से
जब कोमल से भाव ही मानस पर भार बन गए।
-विष्णु प्रसाद ‘पाँचोटिया’
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