मुक्तक
मानवता का दुश्मन है यह, नशा न करना भाई।
नशा किया है जिसने उसका, जीवन है दुखदाई।
घर परिवार बिखर जाता है, दुख मिलता जीवन भर-
इज्ज़त और प्रतिष्ठा खोती, होती व्यर्थ कमाई।
सूर्य चमकता आसमान में, तम को दूर भगाता।
घर आंगन का कोना-कोना, सब रौशन कर जाता।
नव-ग्रह जिसका चक्कर काटें, जो जलता रहता है-
‘सूर्य’ स्रोत है ऊर्जा का वह, धूप साथ में लाता।
सबसे श्रेष्ठ दिखाता खुद को, करता है मनमानी।
टुटपुँजिये शागिर्द बनाकर, मिथ्या करे बयानीं।
आत्ममुग्धता का जिसको भी, रोग लगा दुनिया में-
अंत समय में देखो भइया, बचा न उसका पानी।
सड़क किनारे भिक्षुक दिखते, प्रतिदिन आते-जाते।
जीने की लिप्सा में मानव, कितने कष्ट उठाते।
खुशी मिलेगी कर के देखो, साथी हाथ बढाओ-
दुखियों की सेवा करना तुम, #मानवता के नाते।
कुछ बादल यदि आ भी जाएँ, सूर्य कहां छिपता है।
चीर तिमिर की काली रेखा, अम्बर में उगता है।
खुद जल कर जो देता रहता, दुनिया को उजियारा-
हाय! धरा पर ऐसा मानव, आज कहांँ मिलता है।
ऊंँच नीच का भेद मिटा कर, सबको गले लगालो।
ज्ञान अगर कुछ मिल भी जाए, खुद को जरा संँभालों।
आत्ममुग्धता कर देता है, अहंकार में पागल-
गाँठ पार लो जीवन में तुम, रोग नहीं यह पालो।
(स्वरचित मौलिक)
#सन्तोष_कुमार_विश्वकर्मा_सूर्य
तुर्कपट्टी, देवरिया, (उ.प्र.)
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