मुक्तक
कहमुकरी विधा
द्वार बजा उठ सांकर खोली
बैरी ने घुस सेज उकेली+
खिंचता चीर हाथ से रोका
थे सखि साजन? ना वत झोंका ।
सावन सूखा आंखें भदवा
विधवा लगती होकर सधवा
आया वह तो हुई हैरानी
को सखि साजन? न सखि पानी।
चढ़कर छत पर इकटक ताके
भगे ना भागे हांके हांके
मन बहलाता, कुआंरों सा गा
क्या सखि प्रेमी? न सखि कागा ।
+उथलपुथल