मुक्तक
निशानी लेकर फिर निशाना बनता है,
गरीब को हटा के आशियाना बनता है,
तूँ ख़ैर क्या मांगता है बेखैरख्वाहों से,
जो अनजान बना के अनजाना बनता है,
परिन्दें चाहते हैं कुछ तो छांव मिले,
दरख़्त दरिया में केवल तो घाव मिले,
ताल्लुक ऐसे नहीं चलता रवानी से,
पेड़ को पानी से बहुत ही आघात मिले,
अपनी मर्जी से वो हमको आज़ाद करें,
हम उनसे कोई कब तक फ़रियाद करें,
दिल में तसल्ली बस चोट देते पावँ पे,
अब उस पावँ तले समय न बर्बाद करें।