मुक्तक
‘चूड़ियाँ’
आहटें सुन आपकी अब चहकती हैं चूड़ियाँ।
लाल-पीली काँच की मिल खनकती हैं चूड़ियाँ।
लौटकर आए मगर ओढ़े हुए खूनी कफ़न-
टूटकर चीत्कार करती सिसकती हैं चूड़ियाँ।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना
‘जीवन’
जीवन धूप-छाँव का रेला सुख-दुख आते-जाते हैं।
कभी खुशी तो कभी मिले ग़म नित इतिहास रचाते हैं।
कालपाश में फँसी ज़िंदगी तिल-तिल जीवन खोता है-
शोक-अशोक नदी के धारे ईश्वर पार लगाते हैं।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’