मुक्तक
जिंदगी तो वैसे ही तबे पे चढ़ी है
और चूल्हा आग के साथ ख़ामोश,
ख्वाहिशों की हांड़ी-बटली
करने में लगे हैं शोर
अब तुम ही कहो पूर्दिल
इस और देखूं या देखूं उस ऒर…
…सिद्धार्थ
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२.
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दिल के दरारों में उलझी रही बरसों तलक खाहिशें जाने कितनी मेरी
तुम आये तो तरन्नुम बन फैल गई फिज़ा में बिन किये तनिक भी देरी !
…सिद्धार्थ
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३.
‘पुर्दिल’ आज कल एक नया सा शौक चढ़ा है
किसी की याद में, किसी की चाह में
उदाशी का एक लिबास अपने लिए गढ़ा है !
…सिद्धार्थ