मुक्तक
“मौन थी मेरी कलम उसको रवानी दे गये,
जाते-जाते मुस्करा कर इक निशानी दे गये,
जिनके आने से बढ़ी थीं रौनकें चारों तरफ,
देश के खातिर वो अपनी ज़िन्दगानी दे गये “
“मौन थी मेरी कलम उसको रवानी दे गये,
जाते-जाते मुस्करा कर इक निशानी दे गये,
जिनके आने से बढ़ी थीं रौनकें चारों तरफ,
देश के खातिर वो अपनी ज़िन्दगानी दे गये “