मुक्तक
ज़िन्दगानी के भी कैसे-कैसे मंज़र हो गए,
खुशियों से तो अब हमारे दर्द बेहतर हो गए,
एक क़तरे भर की आँखों में थी जिनकी हैसियत,
अश्क पलकों से निकलते वो समन्दर हो गए,
ज़िन्दगानी के भी कैसे-कैसे मंज़र हो गए,
खुशियों से तो अब हमारे दर्द बेहतर हो गए,
एक क़तरे भर की आँखों में थी जिनकी हैसियत,
अश्क पलकों से निकलते वो समन्दर हो गए,