मुक्तक सृजन
चाँद आया नज़र चांदनी हो गई!
तीरगी थी जहां रोशनी हो गई!
जब से थामी कलम है मेरे हाथ ने,
खूबसूरत हंसी ज़िंदगी हो गई!
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हौसलों से मेरे है उजाला हुआ!
वैरियों का जतन आज काला हुआ!
सिलसिला चल पड़ा रहमतों का हसीं,
उस ख़ुदा का क़रम जो निराला हुआ!
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किसी के भी हुनर को तुम नज़र अंदाज़ मत करना!
लगे जो अजनबी तुमको उसे हमराज़ मत करना!
मुसाफ़िर आपसे करता फ़क़त इतनी गुज़ारिश है,
करो आदर बुज़ुर्गों का उन्हें नाराज़ मत करना!
धर्मेन्द्र अरोड़ा
“मुसाफ़िर पानीपती”
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