मुक्तक : “दिल-ए-नादां”
इश्क़ का दीदार हर किसी को
नसीब नहीं होता
“शबाब-ए-हुस्न” का ख्वाब
हर किसी का पूरा नहीं होता ।
“दिल-ए-नादां” तू समझता क्यों नहीं
बिखर चुकी है, मिरी हयात
तू टूटकर बिखरता क्यों नहीं ।
महफूज जिसे तूने रखा है, अपने भीतर
जसारत से बाहर निकालता क्यों नहीं ।
न मिले वो तुझे, तू ग़म न कर
तू उन्हें, “दिल-ए-पत्थर”
समझता क्यों नहीं ।।
*मिरी हयात – मेरी ज़िन्दगी
*जसारत – दिलेरी
– आनन्द कुमार