मुक्कमल
कुछ भी मुकम्मिल नहीं पर क्यों लगता है जो है वो काफी है क्या कुछ होना कुछ ना होने से ज़्यादा बेहतर नहीं है पर किसपर इतना अख़्तियार कि सब अपना लगे शायद कुछ भी तय नहीं और न ही तय किया जा सकता जो चल रहा है अब वही ठीक है उसी को अपनी नियति मान लेना ज़्यादा मुफ़िद है।दिन आता है बढ़ता है पर योंही गुज़र जाता है कुछ अलग सा क्यों नही उस दिन के जैसा जो कल्पना से कहीं अधिक परिपक्व था और कहीं बनावटीपन भी नहीं हमें क्यों लगता है कि हमें देखकर ताली बजाने लगे मुस्कुराने लगे कुछ भी तो नहीं ऐसा जो हमें दूसरों से कुछ मुखतलिफ कर सके …
मनोज शर्मा