मुकम्मल आसमान …..
मुकम्मल आसमान …..
कल
जो गुजरता है जिन्दगी में
एक मील का पत्थर बन जाता है
और गिनवाता है
तय किये गये सफर के चक्र की
नुकीली सुइयों पर रखे
कदमों के नीचे रौंदी गई खुशियों के दर्द की
कभी न खत्म होने वाली दास्तान
गिनवाता है यथार्थ की कंकरीली जमीन पर
कुछ दूर साथ चले
नंगे पाँवों के दम तोड़ते निशान
और दिखाता है
ख्वाबों के फ़लक पर
बेनूर होते आफताबी अरमान
रोज, हर रोज,
हर आज
अपनी केंचुली बदल कर
फिर जिन्दगी की राह में
मील का पत्थर बन जाता है
दर्द की किताब में
एक ओर वर्क जुड़ जाता है
एक मुकम्मल आसमान की चाह में इंसान
कहाँ- कहाँ से गुजर जाता है
सुशील सरना /24-7-24