मुकद्दर तेरा मेरा
मुकद्दर तेरा मेरा एक जैसा क्यों लगता है
सूना घर तेरा मेरा एक जैसा क्यों लगता है
तुम भी हो अकेले और हम भी हैं अकेले
ये तन्हाई का घेरा एक जैसा क्यों लगता है
दिन को न चैन नहीं नींद रात को आती
ये साँझ ये सवेरा एक जैसा क्यों लगता है
बिखरे हैं ख्वाब हमारे टूटे हैं सपने सारे
दिल का ये अंधेरा एक जैसा क्यों लगता है
है’विनोद’अधूरा जीवन कैसा ये दोनो का
जाने गम तेरा मेरा एक जैसा क्यों लगता है
स्वरचित
( विनोद चौहान )