“मित्र से वार्ता”
अँधकार का राज भी,
होता, इक दिन पस्त।
देख, कुहासा छँट रहा,
है प्रकाश अभ्यस्त।।
पवन, पुष्प से कह उठी,
सुरभि तेरी अलमस्त।
भ्रमर वृन्द, गुँजार है,
कब स्वीकार्य, शिकस्त।।
सरिता, अविरल बह रही,
“आशा”, पर विश्वस्त।
सागर से, उसका मिलन,
होता नहीं निरस्त।।
कितना भी उर-भार हो,
कितना ही मन त्रस्त।
मित्र की मगर बात से,
मन हो जाता मस्त।।
कितना भरमाए कोई,
रहना किन्तु तटस्थ।
मित्र, वार्ता यदि करे,
कभी न कहना ” व्यस्त “..!
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