मित्रता
मित्र, दोस्त, यार ऐ ऐसे शब्द हैं जिनके श्रवण मात्र से जैसे फिजा में खुशबू बिखर जाती है।मित्रता विश्वास की वो चरम विन्दू जिसके उपरांत और कुछ भी नहीं।मित्र जो कभी गुरु, कभी माँ, कभी पिता तो कभी सहोदर भाई, हमारे जीवन पथ में जब जैसी जरूरत हो निःस्वार्थ भाव से समर्पित हो हर एक किरदार में खुद को ढाल लेता है।
हमें हर एक विघ्न- बाधा से कठिन से कठिनतम, अत्यधिक दुस्कर परिस्थिति का सामना करते हुये बचाता है और उफ् तक नहीं करता।
भगवद् भक्ति से भी कहीं ऊँचा स्थान है मित्रता का इसका प्रमाण है श्रीकृष्ण सुदामा मित्रता, जब मित्र सुदामा को द्वार पर आया जानकर भगवान श्रीकृष्ण नंगे पाव मित्र से मिलने को दौड़ पड़े थे और जल को हाथ न लगाया नैन से बहते अश्रु जल से ही पग पखार दिये थे।परन्तु आज के इस मौकापरस्ति भरे माहौल में इस पवित्र रिस्ते “दोस्ती” का अर्थ भी बदलता जा रहा है।आज तो स्वार्थ सिद्धि के लिए दोस्ती कर लो और जैसे ही निजी स्वार्थ पूर्ण हो किनारा करने की परम्परा आम हो चली हैं।
ऐसा भी नहीं है कि हर एक इंसान मौका परस्त ही हो। आज भी कईयों गहरी दोस्ती के उदाहरण मिलते है।
दोस्तों मुझे मित्रता पर भाषणबाजी करने की कोई विशेष जरूरत तो नहीं किन्तु आज के इस परिवेष में इस रिश्ते पर संदिग्धता के जो कालिमामय घनेरे बादल छाते जा रहे है यह सब देख कर उन परिस्थितियों को महसूस कर हृदय में क्षोभ उत्पन्न होता है।
मैं चाहता हू क्यों न हम इस मित्रता रूपी पौधे को बरगद के पेड़ सरीखे बनाये ताकी छाया और मजबूती दोनो ही मिलता रहे।
रेत पे खड़े खजूर के पेड़ जैसी मित्रता किसी काम की नहीं तो आये एक नये समाज का निव रखें जहाँ बस मित्र ही मित्र हों शत्रु, छलिया, मौकापरस्त, धोखेबाज कोई न हो…….
क्या यह संभव है? ऐसा हो सकता हैं?
हाँ….अगर हम संकल्प साध लें।।।
…..पं.संजीव शुक्ल “सचिन”