मित्रता
मित्रता
बारिशें रूक गई थी, नदियाँ फिर से सीमाबद्ध हो चली थी, कीचड़ भरे मार्गों का जल फिर से सूरज ने सुखा दिया था , राम और लक्ष्मण , सुग्रीव की प्रतीक्षा में व्याकुल हो रहे थे, दिन बीत रहे थे , उन दोनों की भावनायें संतुलित रहने के लिए उनका पूरा नैतिक, शारीरिक बल माँग रही थी । एक तरफ़ सीता की मुक्ति का प्रश्न था और दूसरी ओर सुग्रीव की अकर्मण्यता का बोझ ।
लक्ष्मण ने कहा, “ कहें तो इस दुष्ट को अभी जाकर नष्ट कर दूँ । “
“ उससे क्या होगा? “ राम ने पूछा ।
लक्ष्मण चुप हो गए ।
“ परन्तु कुछ तो करना ही होगा । “ राम ने कुछ पल रूक कर कहा ।
“ कभी-कभी लगता है , जैसे मैं भ्रम में जीता हूँ । पिता का वचन रखने के लिए चुपचाप चला आया, क्योंकि लगा बृहत्तर समाज के लिए यही उचित है। “ राम ने अनंत में देखते हुए कहा ।
लक्ष्मण दम साधे राम की बात समाप्त होने की प्रतीक्षा करते रहे , लगा जैसे राम अपने आपको सहेज रहे हैं ,
“ और तुम लक्ष्मण अपना कर्तव्य समझ कर मेरे साथ भटकने चले आए । “
“ पिता के वचन के उत्तराधिकारी आप अकेले तो नहीं हो सकते थे, जिस प्रकार राजपाट में आपका हाथ बटाना मेरा कर्तव्य होता, वैसे ही जंगल आना भी मेरा कर्तव्य था ।”
राम की आँखें नम हो आई।
“ क्या मैंने कुछ अनुचित कहा भईया? “ लक्ष्मण ने हाथ जोड़ते हुए कहा ।
“ नहीं मेरे भाई ,” राम ने लक्ष्मण के दोनों हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, “ तुम तो कभी कुछ अनुचित कह ही नहीं सकते, तुम्हारे मन का सौंदर्य ही तो जीवन का सौंदर्य है, जो बार बार मन को छू जाता है, और मेरी आँखों को नम कर जाता है । “
राम अपने विचारों में भटकते हुए खंडहर की दूसरी ओर आ पहुँचे । कुछ पल उस खंडहर में पक्षियों की आवाज़ें आती रही, राम आकाश में उड़ती चीलों को देखते रहे। सुंदर नीला आकाश कह रहा था, यह गतिमान होने का समय है, घर से बाहर निकल प्रकृति को आकार देने का समय है।
राम निश्चय पूर्वक लक्ष्मण की ओर मुड़ गए,
“ लक्ष्मण जाओ, सुग्रीव को अपने कर्तव्य की याद दिलाओ, और कहना, यह दुर्भाग्य की बात है कि मित्र होकर भी मुझे शक्ति प्रदर्शन करना पड़ रहा है , मैं उसे एक अवसर अवश्य दूँगा , नहीं तो इस कार्य को पूरा करने के लिए हमें और मार्ग भी मिल जायेंगे । राम किसी एक व्यक्ति पर निर्भर रहकर अपना ध्येय नहीं साधता। “
संध्या होते न होते सुग्रीव लक्ष्मण के साथ आ पहुँचे ।
“ क्षमा चाहता हूँ राम, मैंने आपके विश्वास को तोड़ा । “ सुग्रीव ने नीची दृष्टि से कहा ।
“ अपराध तो तुमने किया है, जब भी कोई एक मनुष्य दूसरे मनुष्य का विश्वास तोड़ता है, वह पूरी सभ्यता को घायल करता है , और तुमने राजा होकर यह अपराध किया है। “ राम के स्वर में व्यथा थी ।
“ हाँ राम, सुग्रीव ने हाथ जोड़ते हुए कहा, परन्तु आप करुणामय हैं , मित्र के इस अपराध को क्षमा करें । “
“ क्षमा की याचना करते हुए तुम्हें लज्जा आनी चाहिए, यदि हनुमान तुम्हारे साथ न होते तो मैं तुम्हें मृत्यु दंड दे देता ।” लक्ष्मण ने क्रोध से कहा ।
“ ठहरो लक्ष्मण, क्रोध में कहीं बात से कहीं मित्र को पीड़ा न हो । “ राम ने कहा, फिर कुछ पल रूक कर , लक्ष्मण के निकट जाकर कहा , “ लक्ष्मण पूर्ण तो कोई भी नहीं , क्षमा न हो तो हम सब अकेले हो जायें, क्षमा ही तो हमें एक दूसरे के साथ जोड़े रखती है, और हमें अपने मनुष्य होने का स्मरण कराती है। “
इतने में हनुमान ने आगे बड़कर कहा, “ लक्ष्मण, यह उदारता आपको सुख देगी , और हमें आगे बढ़ने का अवसर ।
लक्ष्मण मुस्करा दिये, “ हनुमान तुम्हें तो मेरे भाई ने भाइयों सा स्नेह किया है, फिर तुम जिसके मित्र हो , उसका पहला अपराध तो क्षमा करना ही होगा ।”
राम ने मुस्करा कर लक्ष्मण की ओर देखा, लक्ष्मण इसका अर्थ समझ गए।
“ चलिए, आगे क्या करना है , इसकी चर्चा कर लें । “ लक्ष्मण ने सुग्रीव से कहा ।
राम ने भी स्नेह से सुग्रीव के कंधे पर हाथ रख दिया । वातावरण फिर से सहज हो उठा। हनुमान मन ही मन राम को नमन कर उठे और सोच रहे थे, यह राम की करूणा ही है जो उन्हें मनुष्य से ईश्वर बना देती है।
——शशि महाजन