“मित्रता में समांजस”
डॉ लक्ष्मण झा “परिमल ”
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आज सब अपने ही धुनों पर थिरक रहे हैं। लगता ही नहीं है कि हम कभी ‘कोरस ‘ भी गाया करते थे । सुरों का सामंजस ,ताल ,लय ,उतार चड़ाव के साथ रंगमंचों में चार चाँद लग जाते थे। हम सब एक साथ चलते थे। हमारे समूहों में किसी के लड़खड़ाने का आभास हो तो उसे सारे लोग अपने कन्धों में उठाये बैतरनी पार कराते थे। हमारे सहयोग, विचारधारा, आपसी ताल -मेल के बीच द्वन्द का समावेश यदि होता भी था तो निराकरण, विचार विमर्श के बाद हो ही जाता था। “समान विचार धारा वाले ही अधिकांशतः मित्र बनते थे। “हम भली भांति उन्हें जानते थे वे हमें जानते थे। हम उम्र होने के नाते, अपने ह्रदय की बातों को बेहिचक एक दूसरे के सामने रखते थे। अपने कामों के अलावे मित्रों के साथ समय बिताना किसे नहीं अच्छा लगता था ? अच्छी- अच्छी बातें करना ,हँसी मजाक ,भाषण देने का अभ्यास , संगीत, गायन, खेल -कूद इत्यादि..इत्यादि हम लोंगो को भाते थे ! परन्तु आज के परिवेश में मित्रता की परिभाषा ही बदलने लगी ! हमने तो पुराने को सराहा ..नए युगों का भी स्वागत्सुमनों से स्वीकार किया। हम अभी भी आरती की थाल लिए प्रतीक्षा कर रहें हैं ..आँगन में रंगोलियाँ सजी है, कलश में धान की बालियाँ डाली गयीं हैं …थाल में गुलाबी रंगों का लेप है, हम गृह लक्ष्मी का अभिनन्दन करेंगे। हमें सबसे जुड़ना चाहते हैं। और हम जुड़ने भी लग रहे हैं। पर एक बात तो माननी पड़ेगी ..हम एक दूसरे को समझ पाने में कहीं न कहीं पीछे पड़ गए । कोई निरंतर लिखता है
“हाई…कैसे हैं ?
आप अपना सेल्फि भेजें
क्या बात है
क्या आप नाराज़ हैं ? ”
यही बातें शायद सबको चूभ सकती है। दरअसल मित्रता का दायरा विशाल हो गया पर हम एक दूसरे को जान ना सके ! मित्रता का स्वरुप कुछ बदला -बदला नजर आने लगा है । बस हम यहीं पर लड़खड़ा गए हैं । कभी -कभी कोई मित्र युद्ध शांति के बिगुल बजाने लगते हैं और कहते हैं
” मैने अपना टाइम लाइन को आउट ऑफ़ बाउंड बना रखा है
इसे झाँकने का प्रयास ना करें !”
कहिये तो, मित्रता में यह प्रतिबन्ध कैसा ? सब ठीक हो जायेंगे, हम जान गए, नयी नवेली दुल्हन को समझने में समय तो लगेगा। तब तक हम
” अपनी ढपली, अपना राग ”
गाते, बजाते और सुनते रहें…!
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डॉ लक्ष्मण झा ‘परिमल ”
साउंड हेल्थ क्लिनिक
डॉक्टर’स लेन
दुमका
झारखंड
भारत