मिट्टी में लाल
धरती को बना के बिछोना
सोया है,
किसी माँ का लाल सलोना
सोया है।
माँ करती होगी काम कहीं
पेट के वास्ते,
क्या जाने वो सोने से पहले
ये कितना रोया है।
नहीं पायी होगी माँ की गोद
की नरमी,
इक रोटी की खातिर उसने
आँचल माँ का खोया है।
मिट्टी में सनता नंगे पैर चलता
प्यार को तरसता,
बना आकृति माँ की खाब में
ममता को पिरोया है।
कहां चाह है उसको रेशमी हो
बिस्तर उसका,
सुख मखमल सा पत्थरों में जा
टोहया है।
ना खेलने को खिलोने है रंग
बचपन ही मुरझाया है,
कैसे इस फूल के बीज को
रब ने बोया है।
जाने कैसी किस्मत लिखी है
ये जाने न कोई,
बनाने वाला बना के इसको
खुद जार जार रोया है।
सीमा शर्मा