मिट्टी गंगा की
मिट्टी गंगा की
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गंगा की मैं रेत हूँ, रज कहते सब लोग।
हृदय और मस्तक लगूँ, छूटें भव के भोग।।
छूटें भव के भोग,करूँ पावन तन मन को।
रहती सदा विशुद्ध, तार देती जन जन को।।
कहें सचिन कविराय, वेद में यही प्रसंगा।
करे सदा उद्धार, जगत की पावन गंगा।।
✍️पं.संजीव शुक्ल “सचिन”