” मान ऐसे भी रखा जाता है “
बात बहुत पुरानी है हम पूरे परिवार के साथ हर त्योहार और शादियों में कलकत्ता से गांव ज़रूर जाते थे , इस बार भी गायत्री दीदी की शादी ( बड़के बाबू की छोटी बेटी ) में आये थे…गांव आते ही सब वहाँ ऐसा रमते की लगता ही नही की वो इतने सुख सुविधाओं के आदी हैं वहाँ की हर बात – व्यहवार , व्यक्ति – रिश्तेदार , नदी – खेत और अपना परिवार सबसे प्यार था उन्हें ।
शादी का माहौल उपर से उनका वहाँ पहुचना ” सोने पर सुहागा ” गाना – बजाना , नाचना – नचवाना , खाना – पीना सबके साथ करने का जो मज़ा आता था की वापस कलकत्ता लौटने का मन ही नही करता । हम लोग जो भी करते वो घर के अंदर आँगन में करते दुआर ( घर के बाहर की जगह जहाँ मर्द लोग बैठते थे ) पर किसी औरत को जाने की इजाजत नही थी सिवाय छोटी लड़कियों के वो भी कम । ना जाने कब से ये परंपरा चल रही थी मेरे बाबू ( पिता जी ) ने भी कभी बड़के बाबू से इसके लिए कुछ नही बोला लेकिन अपने विवाह में विवाह से इंकार कर दिया था की जब तक उनकी बाल विधवा चाची ( राधिका की दादी का देहांत हो चुका था और चाची ने ही उनका पालन – पोषण किया था ) उनके विवाह का सारा शुभ कार्य अपने हाथों से नही करेंगीं वो विवाह नही करेगें , उनकी इस धमकी का जोरदार और शानदार असर हुआ था और इस विवाह से लेकर अपने जीवन के अंत तक घर के सारे शुभ कार्य उन्हीं ( आजी ) के हाथों ही संपन्न होता था…ऐसे थे मेरे बाबू लेकिन इस बात को लेकर उनका मानना था की हम सब थोड़े दिनों के लिए ही आते हैं क्यों भईया ( बड़के बाबू ) की बात को अस्वीकार करें ? कलकत्ता में तो हम अपने हिसाब से रहते ही हैं ।
लेकिन शादी के माहौल में मेरी बड़ी दीदी को तो खुराफात सूझ रही थी जब से पता चला था की गायत्री दीदी के होने वाले पति ने पूने फिल्म इंस्टीट्यूट से डायरेक्शन का कोर्स किया है उसके अंदर भी अभिनय का कीड़ा कुलबुलाने लगा । गुपचुप तैयारी शुरू हुई हम बच्चों को इससे दूर रखा गया क्योंकि हम पेट से कमजोर थे हो सकता था जा कर सब बता आते , दुआर पर सारे मर्द बैठे चाय – पकौड़ी का आनंद ले रहे थे की वहाँ छोटे चाचा का बेटा दौड़ते हुये पहुँचा और बोला की होने वाले जीजा जी के दोस्त आये हैं सबके सब हड़बड़ाये की ऐसी क्या बात हो गई की बारात आने के तीन दिन पहले दूल्हे का दोस्त आ जाये थोड़ी घबराहट भी हो रही थी ।
अंदर संदेशा भिजवा दिया गया की चाय – नाश्ता तैयार कर दुआरे भेज दें , दोस्त जी आये हैट लगाकर अच्छी मुछों के साथ थोड़ी बातचीत के बाद जब उनसे आने का कारण पूछा तो बोले होने वाली भाभी से मिलना है ये सुनते ही भड़ाम से बम फूटा सबके सब आग बबूला यहाँ बात संभाली मेरे बाबू ने बोले…तीन दिन की ही तो बात है अपनी भाभी को देख लेना अभी खाओ – पीयो और सोओ सुबह आराम से घर जाना , लेकिन वो ज़िद करने लगा ” प्लीज़ एकबार मिलने दिजिये ” इसी बातचीत के दौरान टोपी से एक लंबी चोटी नीचे लटक गई…ये क्या ये कौन है ? झुका हुआ हैट हटाया गया सारे मर्द रिश्तेदारों के बीच साक्षात मेरी दीदी खड़ी थी…चाचा लोग हँसने लगे कुछ रिश्तेदारों का मुँह बन गया , मेरे बाबू चुप , लेकिन सबसे बड़ी बात ये हुई कि बड़के बाबू बिना गुस्सा हुये बोले मधुरिया ( राधिका की दीदी का नाम माधुरी था लेकिन उस वक्त गांव में सब बच्चों के नाम के आये एक ” या ” जरूर जोड़ दिया जाता था ) तु त बड़ा बढ़िया एक्टिंग कइली हम त तोके चिन्हबे नाही कइली ( माधुरी तुमने तो बहुत अच्छी एक्टिंग की मैं तो तुमको पहचान ही नही पाया ) , इतनी बड़ी बात हो गई थी लेकिन बड़के बाबू ने अपने छोटे भाई ( राधिका के पिता जी ) का मान रखते हुये उस बात को हँसी में उड़ा दिया…सारा माहौल अंदर – बाहर खुशी में बदल चुका था आज मेरे बड़के बाबू जीवित हैं ना बाबू , लेकिन जब भी हम सब इकठ्ठे होते हैं इस बात की चर्चा ज़रूर होती है ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 13/09/2020 )