मानवीयता एवं मानवाधिकार
मानवीयता का तात्पर्य प्राणी के प्राणी मात्र से संवेदना की व्याख्या है ।
संवेदनशील व्यक्तित्व में संस्कार ,आचार विचार एवं वातावरण की भूमिका रहती है ।
यह एक ऐसी दैवीय प्रवृत्ति है जिसके होने से यह मानव को अन्य मानव से श्रेष्ठ बनाती है।
भौतिक संसार में स्वार्थ की तुष्टि हेतु आदिकाल से मानव संवेदनहीन होकर इस विशिष्ट गुण को खोता चला आया है ।जिसके परिणाम स्वरूप वह शोषण एवं अत्याचार रूपी दानवी गुणों से युक्त होता गया है।
जिसकी पराकाष्ठा में वह मानव अधिकारों का हनन करता आया है।
जिसके फलस्वरूप विश्व में द्वेष क्लेष और अनाचार की वृद्धि हुई है ।
और शक्ति संपन्न होने की होड़ में विभिन्न देश अपनी जनता के मूलभूत अधिकारों का हनन करते आए हैं।
इन देशों की सरकारें कुछ विशिष्ट शीर्षस्थ लोगों के निहित स्वार्थ हेतु जनता के हितों की अवहेलना करते हुए राजनैतिक शक्ति समपन्नता के लिये मानवाधिकारों की उपेक्षा कर रहीं हैं।
यद्यपि कुछ देश की सरकारें मानवाधिकार संरक्षण हेतु कानून बनाने एवं आयोग गठन का दावा करती हैं।
परन्तु वास्तविकता में उनकी भूमिका इस संदर्भ कितनी कारगर है यह सोचनीय है।
मानवाधिकार संरक्षण किसी जाति, वर्ग,धर्म एवं संप्रदाय विशेष तक सीमित न हो।
यह इन सब संभावों से निरापद होना चाहिये।जिसका लक्ष्य मानवता की रक्षा एवं प्रतिपादन होना चाहिये।
इस हेतु जनसाधारण में इस भावना के प्रसार एवं प्रचार हेतु प्रयत्न करने की आवश्यकता है।
जिसके लिये समय समय पर जनचर्चाओं का आयोजन एवं इसमे समाज के विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व होना चाहिये।
ताकि जनमानस में मानवता के प्रति चेतना एवं मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशीलता उत्प्रेरित की जा सके।