मातृस्वरूपा प्रकृति
अहा! प्रकृति हमें कितना कुछ देती है।
और बदले में इसके कुछ भी न लेती है।
करता मानव वर्ष भर शोषण दोहन इसका।
विनिमय में यह ‘मधुमास’ प्रतिवर्ष देती है।
जैसे कोई माता दुग्धपान करते-करते ही,
पदाघात करते शिशु को अंक में भर लेती है।
अहा! प्रकृति हमें कितना कुछ देती है।
और बदले में इसके कुछ भी न लेती है।
सच है वह सिर्फ माता ही है, जो सुपुत्र-
कुपुत्र में भेद कदापि न कर सकती है।
समभाव से ही, मुक्त हस्त से सब को,
एक जैसा ही देती है, दे सकती है।
थोड़े-थोड़े अन्तराल से नव-पल्लवित,
नव-गुंजित हो, नव रूप धारण कर लेती है।
सारे ताप-अताप हमारे समभाव से सहती है।
बनें पुत्र कुपुत्र पर, माता सुमाता ही रहती है।
अहा! प्रकृति हमें कितना कुछ देती है।
और बदले में इसके कुछ भी न लेती है।
बहुसंख्यक पुत्रवती माँ की क्या यही नियति है।
आज पुत्रों को माँ की पुकार पर बचानी धरती है।
भोगा सुख हमने अपने पूर्वजों के प्रसाद का,
अब आगामी पीढ़ियों को देनी यही थाती है।
सुख हेतु सहें थोड़े कष्ट शीत-शरद के, यही
संदेशा तो जीवनदायिनी “वसंत ऋतु” लाती है ।