मां का आंचल और पिता प्रेम
मां के आंचल में पले बढ़े हम, पिता प्रेम की छांव तले।
पिता कि उंगली पकड़ चले हम, उनको ही हमने त्याग दिया।
माता की ममता बिसर गई, माया के आगोश में आने से।
पिता प्रेम को भुला दिया, भौतिक सुख अपनाने में।
माता के आंचल में बचपन बीता, पिता प्रेम में मिला लक्ष्य।
लक्ष्य को पाया, खुशियां पाईं, पाया न हमने उस लाड का भाव।
स्वार्थ का दानव ऐसा आया, उसने सब कुछ लिया भक्ष।
स्वार्थ मे मानवता भूल गए, भूल गए हम बेटे का कर्तव्य ।
कहते हैं सब की जीवन जीने को, माया बहुत जरूरी है।
कोई तो पूछे बृद्ध मात-पिता से, क्या तेरी आवश्यकता पूरी है?
क्या तेरे हैं हांथ उठ रहे, दो वक्त की रोटी पोने को ।
क्या जन्माया था तूने मुझको, इस वृद्धावस्था में रोने को ।
बेटो के दिल से पूछो तो बस वे, नजर झुका के सोचते हैं।
भूले बिसरे लम्हों को याद हैं करते, पलकों के आंसू पोछते हैं।
क्या दिन थे वो जब माता, मारती फिर पुचकारती थी।
खाना खाते खांसी आने पर, अम्रत रुपी जल का प्याला लाती थी।
पिता का प्रेम मैं कैसे बखानू, शब्द भी कम पड़ जाते है।
थके हारे से आफिस से वो, घर को जब भी आते थे।
उंगली पकड़के आंगन में वो, चलना हमें सिखाते थे।
सुबह सवेरे उठकर हमको, ब्रश और स्नान कराते थे।
दोनो कांधो पर बिठाकर हमको, स्कूल छोड़ने जाते थे।
नादान थे तब हम बच्चे थे तब, अब तो हम सब ज्ञानी हैं।
पूछो अपने दिल से अब तुम, क्या उनका कोई सानी है।
तब हम नहीं समझते थे, उनके दिल की व्यथा कभी।
देर नहीं हुई है अब भी, उनका सहारा बनने को।
कुछ और नहीं है आशा उनकी, दो वक्त की रोटी मांगते हैं।
कदम नहीं उठते हैं उनके, न घर की सीमा लांघते है।
कुछ और नहीं है भाषा उनकी, पीड़ा आंखो से बखानते है।
आशीष ही हैं देते हमको, जब भी हाथ उनके उठ पाते हैं।
मन्थन करिये आप जरा ये, क्या हम उनको दे पाते है।बचपन, युवा और वृद्धावस्था से, हम सबको गुजरना है।
जो इस धरा पर आया है, उसको एक दिन मरना है।
श्याम सांवरा………