मां!क्या यह जीवन है?
मां! क्या यह जीवन है??
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सब कुछ सहना कुछ ना कहना
कठिन श्रमों से पालन करना
अपने कुनबे का
कभी किसी से ना कहना
क्या यह जीवन है?
किलकारी गूंजी घर में
आयी जब लक्ष्मी बनकर
बेटी बनकर किया सुशोभित
दिखता घर था अति सुन्दर।
पली बढ़ी नाते रिश्तों में
गयी उलझती जीवन भर।
दीदी, बेटी, और बुआ बन
महकायी घर की बगिया
बीत गया समय बालपन
हुई पराई बन दुल्हन।
छूट गया बापू का आंगन
छूट गई मां की बगिया
पीछे रह गयीं बाबा की
रही दुलारी थी बिटिया।।
बना नया घर जो अपना
बापू का नेह नहीं आया
हुई पराई जबसे तूं
तरस किसी को ना आया?
क्या यह जीवन है??
अपने संतानों की खातिर
लाख सहे दुख तूने मां
खाली पेट रही दुख सहे
अनेकों तूने मां
सामाजिक रिश्तों में बढ़ते
नयी पुरानी यादों में
खोती रहती है तूं मां
क्या यह जीवन है??
जिनकी खातिर सहें अनेक
पंथों में बहुभार बहुत
छोड़ चले मझधार बीच
तेरी संतानें क्यों मां
क्या यह जीवन है??
**© मोहन पाण्डेय ‘भ्रमर ‘