माँ
वो जो मेरी वाली थी
कहीं चली गयी
मैं
अपनी ही बनाई
भीड़ में खो गया था
अकेली,
ना जाने कितनी बार
वो मुझसे यूँ ही छली गयी….
वो जो मेरी वाली थी ना
कहीं चली गयी….
एक बरस कल जैसा है
सुबह से ना जाने
कैसा है
ये समाँ….
अरे वो मेरी थी
कई नाम दिये थे उसने मुझको
मैंने भी उसका नाम रखा था
माँ….
सारी मेरी शख़्सियत
उसी से तो ढली गयी …
वो जो मेरी वाली थी ना
कहीं चली गयी….
इसी फ़रेब में हूँ अब तक
हर शह है उसका समाँ
शायद इस इंतिहां के बाद
अब नहीं कोई है इम्तिहाँ….
सूरज सी रोशन थी वो
जाने कितनी किरणों में ढली गयी…
जो मेरी वाली थी ना …
कहीं चली गयी….