माँ का घर
#शीर्षक:- माँ का घर
मुद्दतें बीत गयीं उस घर से बिदा हुए
बरसों हो गए नया घर बसाये हुए
ढेरों जिम्मेदारियाँ,
बच्चों पर समय बिताते हुए
कहाँ अपनी याद में
बस घर परिवार बच्चों की ख़ुशी में
ढूँढ़ लेती हूँ ख़ुद को
अपना वजूद और अपने आपको
पर
फिर भी भूल नहीं पाती
वो घर, मेरी माँ का घर
जब देखो खो जाती
याद बहुत है आती
ज़िंदा है ज़ेहन में वो पुरानी बातें
कुछ लोग, कुछ रिश्ते-नाते
कुछ हँसी ठिठोली,
कुछ कड़वी किसी की बातें
छींक आने पर, माँ का नज़र का टीका
एक रोटी कम खाने पर,
माँ का टोटका…
जी चाहता है उड़ान भरकर वहीं पहुँच जाए
वही ज़िंदगी फिर से जीना चाहे
कितना भी रमने की कोशिश करूँ
माँ का घर नहीं भूल पायी
रहती हूँ यहाँ अपने घर में
फिर भी दिल माँ के घर रहना चाहे ।
रचना मौलिक, अप्रकाशित, स्वरचित और सर्वाधिक सुरक्षित है
“प्रतिभा पाण्डेय” चेन्नई
27/7/2023