माँ का गणित (लघुकथा)
माँ का गणित
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दोपहर दो बजे चिलचिलाती धूप में चार किलोमीटर साइकिल चलाकर जब मोहन घर पहुँचा तो देखा माँ पहले से पानी का ग्लास लिए बैठी है। घर में घुसते ही माँ ने बेटे से कहा- बेटा पानी पी ले। चेहरा देखो , पूरी तरह लाल हो गया है। अपने साड़ी के पल्लू से उसका चेहरा पोछते हुए बोली- बैठ जा बेटा, पंखा झल देती हूँ।
बेटे ने कहा- नहीं माँ, रहने दो। मुझे भूख लगी है, खाना दे दो।
माँ बोली- ठीक है बेटा। हाथ- मुँह धो लो। मैं खाना परोसती हूँ।
बेटा बैठकर खाना खाने लगा तो माँ पंखा झेलने लगी।बेटे ने माँ से कहा- माँ एक रोटी और दे दे।
माँ झट से रसोई से दो रोटी ले आई और थाली में रख दीं।
बेटा बोला- माँ, मैंने तो एक ही रोटी माँगी थी। ये तो दो हैं।
माँ समझाने लगी, अरे बेटा,ये तो पतली-पतली हैं।खा ले, एक के बराबर ही हैं।
बेटा समझ गया , माँ मानने वाली नहीं है। चुपचाप खाना खाकर उठ गया।सोचने लगा माँ के गणित को तो आर्यभट्ट भी नहीं समझ सकते।
डाॅ बिपिन पाण्डेय