माँ और पत्नी (हरिगीतिका छंद)
हरिगीतिका छंद
2212, 2212 ,2212 2212
कुल 16×12 = 28
भोजन
पत्नी और माँ
जोभी बनाती हो प्रिये सब में गजब का स्वाद है।
कैसे मसाले डालती हो भाव की बुनियाद है।
दो कौर खाकर प्रेम झलके,सांस लेते नाक से
सीसी मधुर स्वर कंठ होआँसू निकलते आँख से।
तुम आठ का भोजन बनातीं,बीस खालें पेटभर ।
कम हो नहीं सकता कभी,सब हों खुशी तारीफ कर ।
माता हमारी बीस लोगों का बनाती भोज है।
बस आठ खाते हैं खत्म होती मुसीबत रोज है
तुम हो विलक्षण बचत वाली मात सुख करुणामयी।
लगतीं मुझे हर एंगिल से, नित्य ही नूतन नयी।
तुम रोशनी हो जिंदगी की, जगमगाती सी प्रिये।
जलती सदा करती उजाला, ज्यों दिवाली के दिये।
तुम हो तभी तक घर खुशी है,महकता उद्यान है
जाते तुम्हारे बाग यह लगता मुझे शमसान है।
गुरू सक्सेना
नरसिंहपुर मध्यप्रदेश
10/12/22