महिलाएँ ‘फेमिनिज्म’ की बात करेंगी, पर पिता व पति के ‘उपनाम’ ताउम्र ढोएंगी !
यह कैसी फेमिनिज्म है कि महिलाएं मरदों की गुलामी से कभी निकलना ही नहीं चाहती !
माँ नामक महिला से 9 माह की कैद से छुटकारा पाते ही मात्र 5 दिन ही आज़ादी की साँस ले पाती है कि छट्ठी के दिन नामकरण के साथ पिता नामक मर्द का सरनेम जोड़ दी जाती है और शादी तक यही रहती है, किन्तु जैसे ही पति उनकी साथ ‘मधुचंद्र’ मना लेते हैं, पति का सरनेम वह आजन्म ढोती है, यह तलाक तक चलती है, फिर दूसरा पति होने पर नए पति के सरनेम नया पता की भाँति सिर-माथे पे !
मानो औरत एक ‘पता’ भर है ।
यह तो नृत्यांगना सोनल मानसिंह ने पति (ललित मानसिंह) से तलाक के बाद भी पूर्व पति के सरनेम चस्पाये रखी ! शादी से पहले कवयित्री ममता गुप्ता तो शादी के बाद ममता कालिया हो गई ! हद तो माननीया सुषमा बुआ ने की, पति का सरनेम न लेकर उनके मूल नाम ही ले बैठी और ‘सुषमा स्वराज’ हो गई! कितने पति हैं, जो पत्नी की सरनेम अथवा उनकी मूलनाम खुद के नाम के साथ लगाए हैं।
संजय लीला भंसाली में ‘लीला’ संजय की माँ है और भंसाली उनके पिता का सरनेम! महिलाओं को इस गुलामी से निकलने की हिम्मत दिखानी चाहिए । … अन्यथा आपके द्वारा कही जानेवाली ‘फेमिनिज़्म’ शब्द का औचित्य ही भंगुर हो जाएगी ।