महाश्रृंङ्गार_छंद_विधान _सउदाहरण
महाश्रृंङ्गार_छंद
यह महाशृंगार छंद, शृंगार छंद के विधानुसार ही लिखा जाता है , पर 16 पर यति देकर 32 मात्रा पर चरणांत करना होता है |
शृंगार छंद बहुत ही मधुर लय का 16 मात्रा का चार चरण का छंद है। तुक दो दो चरण में या चारो चरण में होती है , | इसकी मात्रा बाँट 3 – 2 – 8 – 3 (ताल) है। प्रारंभ के त्रिकल के तीनों रूप मान्य है जबकि अंत का त्रिकल केवल दीर्घ और लघु (21) होना चाहिए। द्विकल 1 1 या 2 हो सकता है। अठकल के नियम जैसे प्रथम और पंचम मात्रा पर शब्द का समाप्त न होना, 1 से 4 तथा 5 से 8 मात्रा में पूरित जगण का न होना और अठकल का अंत द्विकल से होना मान्य हैं।
विधान-16,16 पर यति कुल 32 मात्राएँ प्रति चरण।
कुल चार चरण। चरण का प्रारंभ त्रिकल फिर द्विकल से
एवं चरणान्त गाल (21) से अनिवार्य।
चरणान्त दो दो चरण की तुकान्त हो तो #उत्तम ।
दो दो चरणों में यति पूर्व की तुकान्त दूसरे चरण की यति पूर्व सम हो तो #सर्वोत्तम।
चारों चरण की हो तो #अति_सर्वोत्तम होती है।
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इस छंद में आप #मूलछंद , #मुक्तक , #गीतिका #गीत लिख सकते है |
जिनके उदाहरण मैं ( सुभाष सिंघई ) सृजन कर प्रस्तुत कर रहा हूँ
करें अब राधा का शृंगार , गूँथते वेणीं में मधु फूल |
नदी का माने वह उपकार , बैठने देता है जो कूल ||
कहे अब राधा हे घन श्याम, हुआ है मान महाशृंगार |
जानती तेरा हूँ यह काम , सभी मैं समझी हूँ अभिसार ||
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अब मुक्तक में
समय का नहीं रहा विश्वास , चले है कैसे अब यह दौर |
भरोसा नहीं किसी पर खास , कहाँ पर कैसा मिलता ठौर |
मिले जब घातों पर ही घात , समझ लो खतरे में है बात ~
बचो अब दुश्मन से दिन रात , करो मत कोई अपना शौर |
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अपदांत गीतिका ( आधार महाश्रृंङ्गार छंद )
चली है पगडंडी पर नार , झलकती मुख पर थोड़ी लाज |
किया है उसने जो शृंगार , दर्श में खिले कुमदिनी आज ||
कान की बाली बजती झूम , अनोखा बिखरे अब संगीत ,
गाल को लेती बढ़कर चूम , करे वह खुद पर थोड़ा नाज |
सिकुड़कर गोरी होती दून , बनी है सबको वह चितचोर ,
बना है घूघट अब मजमून , बोलता जैसे पूरा साज |
गाँव में भारी होता शोर , चले नर नारी उसकी ओर ,
नैन की घायल करती कोर , देखते छैला बनकर बाज |
हारता मन को यहाँ “सुभाष” , अमिट है गोरी की अब छाप ,
रूप का करना चाहे प्राश , लगे वह सबको अपना ताज |
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गीत (आधार महाश्रृंङ्गार छंद )
राधिका यमुना के है कूल , बने है भोले भाले श्याम | मुखड़ा
कहे अब तेरे चेहरे धूल , छुड़ाता हाथों से अविराम ||टेक
इशारा करती राधा देख , श्याम की पूरी मंशा जान |अंतरा
कहे तू छूने करता लेख , यहीं मैं जानू तेरा मान ||
आज भी नटखट करता काम , श्याम भी हँसते है उस शाम |पूरक
कहे अब तेरे चेहरे धूल , छुड़ाता हाथों से अविराम ||टेक
खिले है कमल नदी के नीर , हरे सब मन की पूरी पीर |अंतरा
राधिका हँसती कृष्णा देख , लगे भी श्यामा बड़े अधीर ||
कहें क्यो रोके लेकर नाम , दिखा है तिनका नथनी थाम |पूरक
कहे अब तेरे चेहरे धूल , छुड़ाता हाथों से अविराम ||टेक
चली है पवन वहाँ कर शोर , नाचते दिखते है अब मोर |अंतरा
सुहाना लगता है सब ओर , श्याम भी राधा करे निहोर ||
बोलते मानो मेरी बात , नहीं है खर्चा कुछ भी दाम |पूरक
कहे अब तेरे चेहरे धूल, छुड़ाता हाथों से अविराम ||टेक
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#सुभाष_सिंघई , एम. ए. हिंदी साहित्य , दर्शन शास्त्र , निवासी जतारा ( टीकमगढ़ ) म० प्र०