महाकवि दुष्यंत जी की पत्नी राजेश्वरी देवी जी का निधन
“दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है। यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है।” स्वर्गीय निदा फ़ाज़ली जी ने अपने एक आलेख में दुष्यंत के बारे में ये पंक्तियाँ कही थी। हिंदी के वो महाकवि व सुप्रसिद्ध शा’इर दुष्यंत जिनका आज से 46 साल पहले देहान्त हो गया था।
29 अगस्त 2021 ई. को उसी महाकवि दुष्यंत जी की पत्नी राजेश्वरी देवी जी का भी निधन हो गया। इसलिए दुष्यंत भी एक बार पुनः चर्चा में आ गए हैं। भोपाल में रविवार रात को राजेश्वरी देवी जी का निधन हुआ, जैसे ही यह ख़बर मिडिया द्वारा मन्ज़रे-आम पर पहुँची तो सहारनपुर में भी शोक की लहर दौड़ गई है क्योंकि राजेश्वरी का मायका डंघेड़ा गांव में है, जो कि सहारनपुर के नागल क्षेत्र में स्थित है।
ख़ैर गद्य-पद्य के क्षेत्र में दुष्यन्त ने एक से एक कृतियाँ हिन्दी साहित्य को दी हैं। जिनमें प्रमुख हैं:— “एक कंठ विषपायी”, जो वर्ष 1963 में आया था; यह एक काव्य नाटक था। इसके अतिरिक्त एक और नाटक दुष्यन्त जी की कलम से निकला था—”और मसीहा मर गया”। इसके अतिरिक्त “छोटे-छोटे सवाल”, “आँगन में एक वृक्ष” व “दुहरी जिंदगी” उनके तीन उपन्यास रहे।; “मन के कोण” नामक पुस्तक में उनकी लघुकथाएँ संग्रहित हैं। “सूर्य का स्वागत”, “आवाज़ों के घेरे”, “जलते हुए वन का बसंत” तीन महत्वपूर्ण काव्य संग्रह रहे। लेकिन जिस किताब ने उनकी ख़्याति को कालजई बनाया, वह थी—”साये में धूप”, जो दुष्यन्त जी का एकमात्र ग़ज़ल संग्रह है।
“साये में धूप” यह किताब दुष्यन्त के जीवन की आख़िरी पुस्तक है। इस पुस्तक के एक-एक अशआर पर जान दे देने को जी चाहता है। यूँ कहा जाये कि इन ग़ज़लों तक आते-आते उनके भीतर कवि तमाम अनुभव झेल चुका था। इसलिए ऐसी-ऐसी बातें बड़ी परिपक्वता और गहराई से उभरी हैं कि सीधे दिल से जिगर में उतर जातीं हैं। उन्होंने इससे पूर्व साहित्य के तमाम प्रयोग अपनी अन्य पुस्तकों में कर डाले थे। कुल मिलके उनके साहित्यिक सफ़र को देखा जाये तो वह अपनी कृतियों में ‘नई कविता’, ‘नाटक’ व ‘उपन्यासों’ में अनेक पड़ाव से गुज़र चुके थे।
महाकवि दुष्यंत कुमार त्यागी की शादी 30 नवंबर 1949 को डंघेड़ा निवासी किसान सूरजभान की पुत्री राजेश्वरी के साथ तब हुई थी, जब वह बिजनौर जनपद के राजपुर नवादा के निवासी थे। नवादा गाँव में ही दुष्यंत का जन्म 27 सितंबर 1933 ई.* को हुआ था। इलहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त करने के बाद दुष्यंत आकाशवाणी भोपाल (मध्य प्रदेश) में असिस्टेंट प्रोड्यूसर के रूप में नौकरी की शुरुआत की और बाद में प्रोड्यूसर पद पर तैनात हो गये। यहीं उनकी कालजई गजलों का सृजन हुआ, दुष्यंत कुमार का 30 दिसंबर 1975 में निधन हो गया था। जबकि, उनकी पत्नी राजेश्वरी अपने बेटे के साथ भोपाल में ही रह रही थी। पति के निधन के 46 वर्ष बाद राजेश्वरी जी का भी आज निधन हो गया। उन्हें अपने पति के सृजनात्मक कार्यों और उपलब्धियों पर बहुत गर्व था।
हैरानी होती है कि, जब 70 के दशक में देशभर के कवि और शायर सरकार के ग़लत फ़ैसलों का महिमा मंडन कर रहे थे, तब दुष्यंत ही एकमात्र शा’इर थे जिन्होंने खुलकर इमरजेंसी के विरोध में लिखा। दुष्यंत की दृष्टि उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से भरी पड़ी थी। उनका यही ग़ुस्सा व नाराज़गी हर उस आम व्यक्ति की नुमानंदगी करती थी, जो व्यथित था! जो अन्याय और राजनीति के कुकर्मों से जूझ रहा था! उस आम व्यक्ति को दुष्यन्त की ग़ज़लों में अपने नए तेवरों की आवाज़ मिली! दुष्यंत ने अपने दौर और समाज की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत की। आम बोलचाल की भाषा उनके साहित्य का प्राणबिन्दु है।
कथाकार कमलेश्वर, दुष्यंत के बहुत ही करीबी दोस्त थे और जो बाद में समधि भी बन गए। दोनों की मुलाकात इलाहाबाद में ही हुई थी। इनकी दोस्ती के अनेक क़िस्से मशहूर हैं। उनमें से एक क़िस्से का जिक्र करता हूँ। जो किसी अख़बार के पुराने अंक में पढ़ा था। एक बार बांदा में कवि सम्मेलन का आयोजन हुआ था। जहाँ दुष्यंत जी ने अपना गीत कमलेश्वर जी को पढ़ने के लिए दे दिया। अपने मित्र को पचास रूपये मिल जाएँ, अतः कथाकार कमलेश्वर जी उस कवि सम्मेलन में सस्वर गीत पढ़ गए। परंतु यह मदद एक तरफ़ा नहीं थी। एक बार दुष्यंत जी को भी पांच सौ रूपये की जरूरत आन पड़ी। तो दुष्यंत जी ने प्रकाशक से ‘अर्थशास्त्र’ की पुस्तक अनुवाद के लिये ले ली और साथ ही रूपये भी एडवांस ले लिये, लेकिन पुस्तक के अनुवाद का कार्य कमलेश्वर को सौंपकर दुष्यंत जी अन्तर्ध्यान हो गये। काफ़ी मुश्किलों से कमलेश्वर जी ने उस अर्थशास्त्र की पुस्तक का अनुवाद कार्य पूरा किया। दोनों में हास्य-विनोद खूब होता था। एक-दूसरे के यहाँ आना-जाना भी। दुष्यन्त के आकस्मिक निधन पर कमलेश्वर बरसों-बरस अपने दोस्त को याद करते रहे।
अंत में दुष्यन्त के कुछ बुलन्द अशआर:—
१.) मत कहो आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
२.) हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
३.) मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
४.) कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।
५.) होने लगी है जिस्म में जुम्बिश तो देखिए, इस परकटे परिंदे की कोशिश तो देखिए।
६.) गूँगे निकल पड़े हैं जुबाँ की तलाश में, सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिए।
७.) एक जंगल है तेरी आँखों में, मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ।
८.) तू किसी रेल-सी गुजरती है, मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ।
९.) खास सड़कें बंद हैं कबसे मरम्मत के लिए, ये हमारे वक्त की सबसे सही पहचान है।
१०.) मस्लहत आमेज़ होते हैं सियासत के कदम, तू न समझेगा सियासत तू अभी इंसान है।
११.) कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए, मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है।
१२.) यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है, चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।
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*कवि दुष्यन्त की पुस्तकों में जन्मतिथि 1 सितंबर 1933 लिखी है, किन्तु दुष्यन्त साहित्य के मर्मज्ञ विजय बहादुर सिंह के अनुसार कवि की वास्तविक जन्मतिथि 27 सितंबर 1931 है।