महंगू की चिंता
03• महंगू की चिंता
महंगू गाँव का सम्मानित औसत दर्जे का किसान था। जल्दी शादी, जल्दी बच्चे । तीन बेटियों के पीछे एक बेटा,सबसे छोटा।खेती इतनी कि सबका भरण-पोषण हो जाता ।रबी व खरीफ के बचे अनाज बेंच कर बाकी ऊपरी जरूरतें पूरी होतीं। ख़्वाहिशें द्वार पर लेटी ऊंघती रहतीं और विलासिताएं सपनों तक ही सीमित थीं ।बेटियों का भाग्य इतना कि गाँव में जुनियर हाई स्कूल था। वहां तक उनकी पढाई हो गई । संतोष था कि ससुराल से कम से कम चिट्ठी-पत्री भेज पाएंगी। धीरे-धीरे कुछ कर्ज ले-देकर एक-एक कर उनकी शादियां भी जैसे-तैसे निबट गईं।
महंगू कुछ समय के लिए अपने छोटे से गांव का प्रधान भी रहा । उसने भरपूर कोशिश की कि आसपास के किसी गाँव में इंटर कालेज हो जाए,लेकिन बात बनी नहीं ।मन तो छुटकी को नर्स या अध्यापिका बनाने का भी बहुत रहा
लेकिन दूर शहर आना-जाना व पढाई का खर्च ऐसा कि मन की बात मन में ही रही।
समय के साथ-साथ महंगू की सेहत भी उसे डराने लगी।पथरी और दमे की बीमारी में पैसे बेतहाशा खर्च होने लगे। बगल के गाँव में सरकारी स्वास्थ्य केंद्र से बात बनती नहीं थी।डाक्टर साहब कहीं दूर शहर से आते,रोज़ नहीं मिलते ।खैर किसी तरह बेटे को उसने कुछ ठीक-ठाक पढ़ाया।प्रदेश में कोई भली सरकार थी।नकल पर ज्यादा सख्ती नहीं थी। थोड़ी-बहुत गांठ ढीली कर लड़का बी ए पास हो गया ।गांव में पहला स्नातक था।
अब धीरे-धीरे महंगू को चिंता सताने लगी कि बेटे की कोई छोटी-मोटी सरकारी नौकरी लग जाती। किसानी का हाल उसने जीवन भर देखा ही था।कहीं कुछ लगता तो कुछ खेत बेंच कर देने का भी मन उसने बना लिया था । लेकिन पता नहीं कौन-सी महामारी आ गई ।उधर सरकार भी बदल गई।लेन-देन बंद हो गया। नौकरियां भी गायब हो गईं और महंगू अपनी चिंता अपने साथ लिए ही इस दुनिया से विदा हो गया ।जाते-जाते दुनिया को बता गया कि मुंशी प्रेमचंद का होरी अभी भी जिंदा है!
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—राजेंद्र प्रसाद गुप्ता ।