मसाले वाली संस्कृति
मसाले वाली संस्कृति ———- ‘शेखू, तेरे आम के बागीचे तो बहुत सुन्दर हैं’ बनवारी ने कहा। ‘अरे बनवारी, अभी तो तूने देखा ही क्या है, आ तुझे अपने आम के बागीचों की सैर करा कर लाऊँ’ शेखू ने सीना तान कर कहा। ‘अरे ओ साइस, ज़रा अस्तबल से दो घोड़े लेकर आओ’ शेखू ने आवाज़ दी। ‘अभी लाया, मालिक’ साइस ने कहा जो बहुत प्रेम से अस्तबल में घोड़ों की देखभाल करता था। थोड़ी ही देर में दो सफेद धवल सीना ताने हुए खुरों को जमीन पर पूरी शक्ति से पटकते घोड़े सामने थे। ‘चल बैठ बनवारी इस घोड़े पर’ कहते हुए शेखू दूसरे घोड़े पर बैठ गया। दोनों घोड़े धीमी चाल से चलने लगे। बनवारी आमों के पेड़ को देखकर चकित हुआ जा रहा था। आमों की कई किस्मों की भीनी भीनी खुशबू उसे दीवाना बना रही थीं। आमों के पेड़ों पर लटकते हरे-हरे कच्चे आम, अम्बियां और कई पेड़ों पर पके हुए आम ललचा रहे थे।
‘शेखू, वाकई में तेरे आम के पेड़ निराले हैं। देखते ही खाने को मन कर रहा है’ घोड़े पर बैठे बनवारी ने कहा। ‘अरे, बनवारी बागीचा घूम लें, फिर जितने मर्जी आम खा, कोई फिकर नहीं है’ शेखू ने स्नेह जताते हुए कहा। ‘अरे, देखो तो, कितने सारे आम पकने के बाद पेड़ों के नीचे टपके पड़े हैं’ बनवारी को देख देख कर मज़ा आ रहा था। ‘बनवारी, ये जो आम के पेड़ों पर परिन्दे रहते हैं न, उन्हीं की दुआ से आम फलते हैं। ध्यान से देख इन आमों के पेड़ों में कितने घोंसले बने हुए हैं। परिन्दों का कलरव बागीचे को मदमस्त किए रहता है। तो फिर इन परिन्दों का तो सबसे पहला हक होता है इन आमों पर। कोयल की मीठी कूक मन मस्तिष्क को तरोताज़ा कर देती है’ शेखू ने कहा। ‘ठीक कहता है तू शेखू, तेरे आम के बागीचों की कोयल की कूक भी इन आमों की तरह ज्यादा मीठी है और हो भी क्यों न जब शेखू जैसा इन बागीचों का मालिक हो। अरे वो देख कुछ बच्चे आम उठा कर अपनी झोलियां भर रहे हैं, उन्हें मना नहीं करता तुम्हारे बागीचों का माली’ बनवारी ने हैरत से कहा। ‘बनवारी, आम से भरी झोलियों वाले इन कुछ बच्चों की दुआएं मेरी झोलियां भर देती हैं जिन्हें खरीदने की मेरे पास हैसियत नहीं है, इन मीठे आमों के बदले ये अनमोल दुआएं, बच्चों की खुशियां कभी मेरे चेहरे पर झुर्रियां नहीं आने देंगी’ शेखू ने मुस्कुराते हुए कहा।
‘भई शेखू, जैसी मिठास तेरे आमों की, वैसी ही तेरी, तुझ पर भगवान की पूरी कृपा है’ बनवारी बोला। ‘अरे बनवारी, इस जीवन में यही तो प्राप्ति है जिसके लिए इन्सान आजीवन भटकता रहता है, भूल जाता है कि इन नन्हीं खुशियों में ही तो जीवन का सार छुपा होता है’ शेखू ने समझाया। इतने में एक और घोड़े पर साइस के साथ माली आया और कहने लगा ‘मालिक, शहर से व्यापारी आया है, मैंने बिठा दिया है, आप आकर बात कर लीजिए।’ ‘ठीक है, तुम जाकर कह दो मैं आ रहा हूं और उसकी आवभगत करो’ शेखू ने कहा। बागीचा घूमते घूमते एक घंटा हो गया था और दोपहर हो आई थी। ‘चल बनवारी, वापिस चलें और आमों का स्वाद चखें’ शेखू ने कहा।
‘लाला जी, नमस्ते’ फकीरचंद व्यापारी ने शेखू का अभिवादन किया। ‘आओ, फकीरचन्द, आओ। बहुत अच्छा लगा तुम आये। इनसे मिलो, यह हैं बनवारी, मेरे बचपन के मित्र’ शेखू ने कहा। ‘नमस्ते जी’ फकीरचन्द ने बनवारी का अभिवादन करते हुए कहा। ‘बनवारी, ये हैं लाला फकीरचन्द, शहर से आते हैं और न जाने कितने बरसों से आ रहे हैं। मेरे बागीचे के बिना मसाले के पके डाली के आम बेचने के लिए यही ले जाते हैं, इन्हें मालूम है कि मैं मसाला लगाने के बिल्कुल खिलाफ हूं, मैं किसी को धोखा नहीं देना चाहता’ शेखू ने कहा। इतने में माली ने आकर कहा ‘मालिक, सुबह जो आम ठंडे पानी में भिगो रखे हैं, उन्हें मैंने अच्छी तरह से पोंछ दिया है।’ ‘आओ बनवारी, आओ लाला फकीरचन्द जी, आमों का लुत्फ उठायें’ कहते हुए शेखू उन्हें अन्दर ले गया।
भई, क्या गजब की सूरत है आमों की, एक दो ज्यादा ही खा जाऊँगा’ बनवारी ने कहा। ‘बनवारी, तू जितने मर्जी खा’ शेखू हंस कर बोला। आम खाते खाते बनवारी ने कहा ‘शेखू, मैं अगले महीने परिवार के साथ कुछ सालों के लिए इंग्लैंड जा रहा हूं, वापिस आकर तुझे मिलूंगा’ बनवारी ने कहा तो आम चूसते चूसते शेखू जड़-सा हो गया। कुछ पलों के लिए एकदम सन्नाटा सा छा गया। इस सन्नाटे में अगर कुछ नहीं रुके तो वह थे शेखू की आंख से टपके आंसू जो बनवारी के लम्बे विछोह की बात सुनकर उसे देखने के लिए बाहर आ गए थे। आंसुओं की भाषा आंसू ही समझ सकते हैं सो बनवारी की आंखों के आंसू भी बाहर आ गए। अब जब ये सब हो रहा था तो लाला फकीरचन्द की आंखों के आंसू भला पीछे कैसे रहते, वे भी बाहर आ गए।
कुछ भीगे पलों की नीरवता के बाद शेखू ने पूछा ‘कब वापिस आएगा?’ ‘मालूम नहीं, पर वापिस जरूर आऊँगा’ बनवारी ने कहा। ‘तू जरूर अच्छे के लिए ही जा रहा होगा, तुझे रोकूंगा नहीं’ शेखू ने कहा। ‘शेखू, तू चिन्ता मत कर, मैं तुझे खत लिखा करूंगा….’ बनवारी की बात को काटते हुए शेखू ने कहा ‘और हां, मैं जवाब भी तभी दूंगा, जब तेरा खत आयेगा।’ लाला फकीरचन्द उन दोनों का स्नेह देखकर गद्गद् हो रहे थे। तभी शेखू उठकर बाहर गया और कुछ ही क्षणों में वापिस आ गया। ‘अच्छा शेखू, मैं चलता हूं, जाने से पहले समय मिला तो एक बार फिर मिलने आ जाऊँगा’ तसल्ली देते हुए बनवारी चलने लगा तो शेखू उसे छोड़ने के लिए बाहर तक आया। ‘बनवारी, ये पेड़ के पके आमों की टोकरियां हैं, तेरे लिए, सामने घोड़ागाड़ी खड़ी है, जा तुझे घर तक छोड़ आएगी’ कहते हुए शेखू बिना देखे वापिस अन्दर चला गया। ‘शेखू मानेगा नहीं, मुझे ये ले जानी ही पड़ेंगी’ खुद से कहता हुआ बनवारी भी उदास मन से चल पड़ा।
बनवारी के घर के बाहर जब घोड़ागाड़ी रुकी तो बनवारी की मां बाहर आ गईं। ‘अरे बनवारी तू, घोड़ागाड़ी में! सब ठीक तो है न, और यह सब क्या है’ आमों की टोकरियों को देख कर मां बोली। ‘मां, यह सब शेखू ने दी हैं, मैं मना नहीं कर पाया’ बनवारी ने कहा। ‘सुनो कोचवान, रुको’ मां ने कहा और आवाज़ देकर कहा ‘ज़रा गरम गरम दूध ले आओ और साथ में कुछ खाने को भी।’ मुन्नी अन्दर से मां के कहे अनुसार सब कुछ ले आई। ‘कोचवान, आराम से दूध पियो और ये मिष्टान्न खाओ, मैं अभी आती हूं। जब तक कोचवान जलपान कर रहा था मां अन्दर से घर की बनी बर्फी को कनस्तर में डाल रही थीं। ‘रामू, ये कनस्तर बाहर ले आ’ मां ने कहा और बाहर कोचवान के पास चली गईं। ‘अच्छा चलता हूं मां जी’ कोचवान ने मां के पैर छुए। ‘रुको बेटा, यह कनस्तर शेखू को दे देना, कहना घर की बनी एकदम ताजी और शुद्ध बर्फी है’ मां ने कहा। ‘जो आज्ञा, मां जी’ कहते हुए कोचवान चला गया।
‘अरे इस कनस्तर में क्या है, कहां से लाया, मैंने तो कुछ नहीं मंगवाया था’ शेखू ने एक के बाद एक कई सवाल कर दिये। ‘मालिक, ये बनवारी बाऊजी की माता जी ने दिये हैं, कहा है इसमें घर की बनी शुद्ध और ताजी बर्फी है’ कोचवान ने कहा। ‘तो पहले क्यों नहीं बताया, जल्दी खोल’ शेखू उतावला हो उठा। जैसे ही कोचवान ने कनस्तर खोला बर्फी की खुशबू फैल गयी। दोनों हाथों में बर्फियां भर कर शेखू ने पहले कोचवान को दीं और फिर खुद खाईं ‘मां के हाथ की बनी बर्फी की बात ही कुछ और होती है’ कहते हुए शेखू आनन्दित हो उठा। ‘अरे कोई है, लाला फकीरचन्द जी आराम कर रहे होंगे, उन्हें भी यह बर्फी देकर आओ’ शेखू उत्साहित हो उठा था। ‘भई, गजब की बर्फी है, मैंने जीवन में कभी नहीं खाई’ खाते खाते लाला फकीरचन्द बोले। ‘भई, मां के हाथ की बर्फी है’ शेखू बोला।
समय के पन्नों में यह दृश्य कैद होते चले गये। शुरू शुरू में बनवारी की चिट्ठियां आती रहीं और शेखू भी जवाब देता रहा। यह सिलसिला कई सालों तक चला। एक दिन बनवारी ने महसूस किया कि उसने तो कई खत लिखे हैं पर शेखू का कोई जवाब नहीं आया। वह आशंकित हो उठा। उसने तुरन्त शेखू से मिलने का कार्यक्रम बनाया और अपने देश आ पहुंचा। बनवारी शेखू के घर गया। वहां पहुंच कर उसने देखा कि आमों की बागीचे की रौनक पहले जैसी नहीं रही। शेखू के घर पहुंच कर बनवारी ने आवाज दी ‘शेखू, शेखू …..।’ पर कोई उत्तर नहीं आया। बनवारी कुछ आगे बागीचे की ओर गया तो दो पहलवाननुमा लोगों ने उसका रास्ता रोका ‘कौन हो तुम, बिना पूछे कैसे चले आ रहे हो?’ बनवारी ठिठक गया ‘भाइयो, क्या यह शेखू जी का घर है?’ ‘अरे, वो बुड्ढा तो कभी का मर गया, अब तो अमीरचन्द ने संभाला हुआ है, पर तुम कौन हो?’ ‘अमीरचन्द कौन है भई’ बनवारी ने पूछा। ‘अमीरचन्द उनका लड़का है, पर तुम कौन हो?’ उन लोगों ने फिर पूछा। ‘क्या करोगे जानकर, फिर भी बता देता हूं, मैं उसका दोस्त बनवारी हूं’ बनवारी ने कहा। ‘अच्छा, क्या काम है, किसलिए आए हो?’ सवाल किया गया।
बनवारी जवाब देने ही वाला था कि सामने से बूढ़ा माली आता हुआ नज़र आया और माली ही बनवारी को देखकर बोला ‘सेठ जी, आप अब आये हो, बहुत देर कर दी आपने, मालिक आपको मरते दम तक याद करते रहे, आपके खत आते रहे, वे जवाब लिख नहीं पाते थे, उनकी मदद कोई नहीं करता था। लाला फकीरचन्द भी अब नहीं आते। आओ, वहां पेड़ के नीचे बैठते हैं।’ बागीचे के बाहर एक पेड़ के नीचे दोनों बैठ गए। ‘क्या बताऊँ सेठ जी, मालिक का लड़का शहर पढ़ने गया था, न जाने किस संगत में पड़ गया, पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर आ गया और एक दिन मालिक से कहने लगा ‘आप जैसा दयालु और ईमानदार आज की दुनिया में नहीं चल सकता। अपनी ईमानदारी की नाव को किनारे लगा दीजिए। इतने सस्ते में आप आम बेच देते हैं। उस पर से आप आमों को पकने के बाद बेचते हैं, देर हो जाती है, क्या फायदा, नुकसान ही होता है। अब से हम कच्चे आमों को उतार कर उनमें मसाले की पुड़िया डालकर शहर भेजेंगे जिससे हमें और पैसे मिलेंगे।’
‘फिर क्या हुआ’ बनवारी लाल ने पूछा। ‘फिर मालिक बोले – बेटा, मसाले वाले आम ठीक नहीं होते, वे नुकसान करते हैं, मैं किसी का नुकसान नहीं होने देना चाहता, माली ने बताया। वो देखो सामने तुम्हें खूब सारे डिब्बे दिखाई देंगे। अभी उनमें कच्चे आम भर कर मसालों की पुड़िया रख दी जायेंगी ताकि वे जल्दी से पक जायें और बिक जायें।’ ‘वो तो ठीक है, पर शेखू के बात पर उनके बेटे ने क्या कहा’ बनवारी जानना चाहता था। ‘हां, उसने कहा कि मैं भी शहर रह कर आया हूं, वहां तो मसाले के पके आम ही मिलते थे, मैंने भी खाये, खूब खाये, पर कुछ नहीं हुआ, कोई नुकसान नहीं हुआ, अब आप बुड्ढे हो गये हो, मैं ही सारा कामकाज देखूंगा और तब से उसने सब पर हुकम चलाना शुरू कर दिया। कुछ पहलवान रख लिये हैं। बच्चे भी अब बाग में नहीं आ सकते। कोयल की कूक में भी दर्द होता है। आमों के पेड़ भी अपनी दशा पर आंसू बहाते हैं। साइस और घोड़े का इतिहास भी खत्म हो गया। इन पेड़ों के साथ मैं ही पुराना बूढ़ा बचा हूं। जब तक जीवन है तब तक हूं, इस उम्र में कहां जाऊं इन साथी पेड़ों को छोड़कर’ माली ने कहा।
‘अबे ओ माली, कब तक बतियाता रहेगा, बागीचों में काम भी करना है, चलो तुम अन्दर बागीचों में, और भाईसाहब, आप इनका टाइम वेस्ट करने आये हो। आपको कोई काम नहीं है तो जाओ।’ बनवारी बिना कुछ कहे चुपचाप चल पड़ा पर रास्ते भर सोचता जा रहा था ‘जैसे आमों को डाल पर पकने से पूर्व ही उन्हें उतार कर मसाले डालकर पका दिया जाता है तो उनके नैसर्गिक गुण नष्ट हो जाते हैं, ठीक उसी तरह हमारी आज की नसल भी मसाले डालकर पका दी जा रही है। इससे पहले कि हमारी नसलें हमारी विश्वप्रसिद्ध प्राचीन संस्कृति व संस्कार के गुणों से भरपूर हों, उन्हें कृत्रिम तरीके से असमय ही परिपक्व कर दिया जाता है तो फिर उनमें संस्कृति व संस्कार कहां से आयें। अमीरचन्द वही नसल है। यह कुदरत का नियम है कि हर चीज अपने समय से आती है। संस्कृति और संस्कार के अभाव में हमारी नसलें भी सड़ रही हैं ठीक वैसे ही जैसे शेखू का बेटा अमीरचन्द जो कहता था शहर में मसाले पके आम खाने से कोई नुकसान नहीं हुआ। इससे बड़ा नुकसान क्या होगा जो इतना बड़ा होने के बाद उसमें संस्कृति व संस्कार के गुण ही न पनप पाये हों। यह हम सबके लिए एक बड़ा सबक है। जब कभी हमारी भावी पीढ़ी हमसे सवाल करेगी कि उन्हें विरासत में क्या दे के जा रहे हैं तो खुद को अपराधी समझेंगे। हम धैर्य रखकर अपने बच्चों में कृत्रिम रूप से गुण भरने के बजाय उनमें कुदरती रूप से धीरे-धीरे अपने परिवार की मजबूत संस्कृति व संस्कार के बीज को पूरी तरह से विकसित होने दें तभी हमारी संस्कृति और संस्कारों की जड़ें मज़बूत बनी रहेंगी।’