मशहूर हो जाऊं
आरज़ू है कि मैं मशहूर हो जाऊ
केवल अल्फाज़ो के तासीर से
उम्मीद,ईशाद,ईशितयाक मुझसे नहीं
ये सब कहो भूतपूर्व आजमे वजीर से
मेरे वादें, इरादे, मंजीले अब्तर भले
जानों फिर भी मानो तमिज से
कोई फर्क नहीं जूल्म, ज़हर, जहीर में
मजाल है कोई पुछ लें आज के तारिख में
मैंने क्या नहीं किया बने रहने को अखबार में
केवल भाषणों के जागीर से
जलील, जालिम, जिल्लत कुछ भी समझो
कोई फर्क नहीं काजल और कालिख में
यहां की आबोहवा मुझसे रुबरु है
बिना किसी एहतियात के
इसितफा, इस्बात का इस्तेमाल कयूकर
जब खुद ही सराती है हम अपने बरात के
स्वरचित कविता (कटाक्ष);-सुशील कुमार सिंह “प्रभात”